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२. १०]
जीवराशि के विभाग
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उत्तर-केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो पूर्ण विकसित चेतना के व्यापार है और शेष सब अपूर्ण विकसित चेतना के व्यापार है।
प्रश्न-विकास की अपूर्णता के समय तो अपूर्णता की विविधता के कारण उपयोग-भेद सम्भव है, पर विकास की पूर्णता के समय उपयोग-भेद कैसे ?
उत्तर--विकास की पूर्णता के समय केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप से उपयोग-भेद मानने का कारण केवल ग्राह्य-विषय की द्विरूपता है अर्थात् प्रत्येक विषय सामान्य और विशेष रूप से उभयस्वभावी है, इसलिए उसको जाननेवाला चेतनाजन्य व्यापार भी ज्ञान और दर्शन के रूप में दो प्रकार का होता है ।
प्रश्न-साकार-उपयोग के आठ भेदों मे ज्ञान और अज्ञान का अन्तर क्या है ?
उत्तर-और कुछ नहीं, केवल सम्यक्त्व के सहभाव अथवा असहभाव का अन्तर है।
प्रश्न--तो फिर शेष दो ज्ञानों के प्रतिपक्षी अज्ञान और दर्शन के प्रतिपक्षी अदर्शन क्यों नही?
उत्तर-मन.पर्याय और केवल ये दो ज्ञान सम्यक्त्व के बिना होते ही नही, इसलिए उनका प्रतिपक्ष सम्भव नही । दर्शनों में केवलदर्शन सम्यक्त्व के बिना नही होता पर शेष तीन दर्शन सम्यक्त्व के अभाव मे भी होते है तथापि उनके प्रतिपक्षी तीन अदर्शन न कहने का कारण यह है कि दर्शन सामान्यमात्र का बोध है । इसलिए सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वी के दर्शन में कोई भेद नही बतलाया जा सकता।
प्रश्न--उक्त बारह भेदों की व्याख्या क्या है ?
उत्तर--ज्ञान के आठ भेदो का स्वरूप पहले ही बतलाया जा चुका है। दर्शन के चार भेदों का स्वरूप इस प्रकार है-१. नेत्रजन्य सामान्यबोध चक्षुर्दर्शन, २. नेत्र के सिवाय अन्य किसी इन्द्रिय से या मन से होनेवाला सामान्यबोध अचक्षुर्दर्शन, ३. अवधिलब्धि से मूर्त पदार्थो का सामान्यबोध अवधिदर्शन और ४. केवललब्धि-जन्य समस्त पदार्थो का सामान्यबोध केवलदर्शन है । ९ ।
जीवराशि के विभाग
संसारिणो मुक्ताश्च । १०।। संसारी और मुक्त ये दो विभाग हैं ।
जीव अनन्त है। चैतन्य रूप से सब जीव समान है। यहाँ उनके दो भेद पर्याय-विशेष के सद्भाव-असद्भाव की अपेक्षा से किये गए है, अर्थात् एक संसार
१. देखें-अ० १, सू० १ से ३३ तक ।
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