________________
६०
तत्त्वार्थसूत्र
[२. २३-२५
रूप विशेषता न हो वही मतिज्ञान है। इसके बाद होनेवाली उक्त विशेषतायुक्त विचारधारा श्रुतज्ञान है, अर्थात् मनोजन्य ज्ञान-व्यापार की धारा में प्राथमिक अल्प अंश मतिज्ञान है और बाद का अधिक अंश श्रुतज्ञान है । साराश, यह है कि स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियों से केवल मतिज्ञान होता है, पर मन से मति और श्रुत दोनों होते है। इनमे भी मति की अपेक्षा श्रुत की ही प्रधानता है । इसी कारण श्रुत को यहाँ मन का विषय कहा गया है ।
प्रश्न-मन को अनिन्द्रिय कहने का क्या कारण है ?
उत्तर-यद्यपि वह भी ज्ञान का साधन होने से इन्द्रिय ही है, परन्तु रूप आदि विषयों मे प्रवृत्त होने के लिए उसको नेत्र आदि इन्द्रियो का सहारा लेना पड़ता है । इसी पराधीनता के कारण उसे अनिन्द्रिय या नोइन्द्रिय (ईषइन्द्रिय या इन्द्रिय-जैसा ) कहा गया है।
प्रश्न- क्या मन भी नेत्र आदि की तरह शरीर के किसी विशिष्ट स्थान में रहता है या सर्वत्र रहता है ?
उत्तर-वह शरीर के भीतर सर्वत्र' रहता है, किसी विशिष्ट स्थान में नही; क्योंकि शरीर के भिन्न-भिन्न स्थानों में स्थित इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये गए सभी विषयों मे मन की गति है जो उसे देहव्यापी माने बिना सम्भव नही । इसीलिए कहा जाता है 'यत्र पवनस्तत्र मनः' । २१-२२ ।
इन्द्रियों के स्वामी वाय्वन्तानामेकम् । २३ । कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैकवृद्धानि । २४ ।
संज्ञिनः समनस्काः । २५ । वायुकाय तक के जीवों के एक इन्द्रिय होती है।
कृमि, पिपीलिका ( चींटी), भ्रमर और मनुष्य आदि के क्रमशः एकएक इन्द्रिय अधिक होती है ।
संज्ञी मनवाले होते है।
सूत्र १३ व १४ मे संसारी जीवों के स्थावर और त्रस ये दो भेद बतलाये गए है । उनके नौ निकाय ( जातियाँ ) है जैसे पृथिवीकाय, जलकाय, वनस्पति
१. यह मत श्वेताम्बर परम्परा का है , दिगम्बर परम्परा के अनुसार द्रव्य मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर नही है, केवल हृदय है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org