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तत्त्वार्थसूत्र
[ २. २६-३१
विशिष्ट वृत्ति गुण-दोष की विचारणा है, जिससे हित की प्राप्ति और अहित का परिहार हो सके । इस विशिष्ट वृत्ति को शास्त्र मे सम्प्रधारण संज्ञा कहते है। यह संज्ञा मन का कार्य है जो देव, नारक, गर्भज मनुष्य और गर्भज तिर्यञ्च मे ही स्पष्ट रूप से होती है । इसलिए वे ही मनवाले माने जाते है ।
प्रश्न-क्या कृमि, चीटी आदि जीव अपने-अपने इष्ट को पाने तथा अनिष्ट को त्यागने का प्रयत्न नही करते ?
उत्तर- करते है। प्रश्न--तब उनमे सम्प्रधारण संज्ञा और मन क्यों नही माना जाता ?
उत्तर---कृमि आदि मे भी अत्यन्त सूक्ष्म मन' विद्यमान है, इसीलिए वे हित में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति करते है । पर उनका वह कार्य केवल देहयात्रोपयोगी है, अधिक नहीं । यहाँ इतना पुष्ट मन विवक्षित है जिससे निमित्त मिलने पर देह-यात्रा के अतिरिक्त और भी अधिक विचार किया जा सके अर्थात् जिससे पूर्वजन्म का स्मरण तक हो सके-विचार की इतनी योग्यता ही संप्रधारण संज्ञा कहलाती है। इस संज्ञावाले देव, नारक, गर्भज मनुष्य और गर्भज तिर्यञ्च ही होते है । अतएव उन्ही को समनस्क कहा गया है । २३-२५ ।
अन्तराल२ गति सम्बन्धी योग आदि पांच बातें
विग्रहगतौ कर्मयोगः । २६ । अनुश्रेणि गतिः । २७॥ अविग्रहा जीवस्य । २८ । विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्व्यः । २९ । एकसमयोऽविग्रहः । ३०।
एकं द्वौ वाऽनाहारकः । ३१ । विग्रहगति में कर्मयोग ( कार्मणयोग ) ही होता है। गति, श्रेणि ( सरलरेखा ) के अनुसार होती है। जोव ( मुच्यमान आत्मा ) की गति विग्रहरहित ही होती है । संसारी आत्मा की गति अविग्रह और सविग्रह होती है।
१. देखे--ज्ञानबिन्दुप्रकरण, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, १० १४४ ।
२. इसे विशेष स्पष्टतापूर्वक समझने के लिए देखें-हिन्दी चौथा कर्मग्रन्थ मे, 'अनाहारक' शब्द का परिशिष्ट, पृ० १४३ ।
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