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२. २६-३१ ] अन्तराल गति सम्बन्धी योग आदि पाँच बातें
विग्रह चार से पहले अर्थात् तीन तक हो सकते है। विग्रह का अभाव एक समय परिमित है अर्थात् विग्रहाभाववालो गति एक समय परिमाण है।
जीव एक या दो समय तक अनाहारक रहता है। पुनर्जन्म माननेवाले प्रत्येक दर्शन के सामने अन्तराल गति सम्बन्धी पाँच प्रश्न उपस्थित होते है .
१ जब जीव जन्मान्तर के लिए या मोक्ष के लिए गति करता है तब अर्थात् अन्तराल गति के समय स्थूल शरीर न होने से जीव किस तरह प्रयत्न करता है ?
२. गतिशील पदार्थ किस नियम से गतिक्रिया करते है ?
३. गतिक्रिया के कितने प्रकार है और कौन-कौन जीव किस-किस गतिक्रिया के अधिकारी है ?
४. अन्तराल गति का जघन्य या उत्कृष्ट कालमान कितना है और यह कालमान किस नियम पर अवलम्बित है ?
५. अन्तराल गति के समय जीव आहार करता है या नही ? अगर नही करता तो जघन्य या उत्कृष्ट कितने काल तक और अनाहारक स्थिति का कालमान किस नियम पर अवलम्बित है ?
आत्मा को व्यापक माननेवाले दर्शनों को भी इन पाँच प्रश्नो पर विचार करना चाहिए, क्योंकि उन्हे भी पुनर्जन्म की उपपत्ति के लिए सूक्ष्म शरीर का गमन और अन्तराल गति माननी ही पड़ती है। किन्तु जैनदर्शन तो देहव्यापी आत्मवादी है, अतः उसे तो उक्त प्रश्नों पर विचार करना ही चाहिए। यहाँ क्रमश. यही विचार किया जा रहा है ।
योग–अन्तराल गति दो प्रकार की है-ऋजु और वक्र । ऋजुगति से स्थानान्तर जाते हुए जीव को नया प्रयत्न नही करना पडता, क्योकि जब वह पूर्व-शरीर छोड़ता है तब उसे पूर्व-शरीरजन्य वेग मिलता है । इस तरह वह दूसरे प्रयत्न के बिना ही धनुष से छूटे हुए बाण की तरह सीधे नये स्थान को पहुँच जाता है। दूसरी गति वक्र ( घुमावदार ) होती है, इसलिए जाते समय जीव को नये प्रयत्न की अपेक्षा होती है, क्योकि पूर्व-शरीरजन्य प्रयत्न वही तक काम करता है जहाँ से जीव को घूमना पडता है। घूमने का स्थान आते ही पूर्वदेहजनित प्रयत्न मन्द पड़ जाता है, अतः वहाँ से सूक्ष्म-शरीर से प्रयत्न होता है जो जीव के साथ उस समय भी रहता है । वही सूक्ष्म-शरीरजन्य प्रयत्न कार्मण
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