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तत्त्वार्थसूत्र
[२. २६-३१
संसारी जीव के लिए आहार का प्रश्न है, क्योकि उसके अन्तराल गति मे भो सूक्ष्मशरीर होता ही है। आहार का अर्थ है स्थूलशरीर के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करना । ऐसा आहार संसारी जीवो मे अन्तराल गति के समय मे पाया भी जाता है और नही भी पाया जाता। ऋजुगति से या दो समय की एक विग्रहवाली गति से जानेवाले अनाहारक नही होते, क्योकि ऋजुगतिवाले जिस समय मे पूर्वशरीर छोड़ते है उसी समय मे नया स्थान प्राप्त करते है, समयान्तर नही होता। इसलिए उनकी ऋजुगति का समय त्यागे हुए पूर्वभवीय शरीर के द्वारा ग्रहण किये गए आहार का या नवीन जन्मस्थान मे ग्रहण किये गए आहार का समय है। यही स्थिति एक विग्रहवाली गति की है, क्योकि इसके दो समयों में से पहला समय पूर्वशरीर के द्वारा ग्रहण किये हुए आहार का है और दूसरा समय नये उत्पत्तिस्थान में पहुंचने का है, जिसमे नवीन शरीर धारण करने के लिए आहार किया जाता है। परन्तु तीन समय की दो विग्रहवाली और चार समय की तीन विग्रहवाली गति मे अनाहारक स्थिति होती है, क्योंकि इन दोनों गतियों के क्रमशः तीन और चार समयों में से पहला समय त्यक्त शरीर के द्वारा लिये हुए आहार का और अन्तिम समय उत्पत्तिस्थान में लिये हुए आहार का है । पर प्रथम तथा अन्तिम इन दो समयो को छोडकर बीच का काल आहारशून्य होता है। अतएव द्विविग्रह गति में एक समय और त्रिविग्रह गति में दो समय तक जीव अनाहारक माने गए है। प्रस्तुत सूत्र में यही भाव प्रकट किया गया है । साराश यह है कि ऋजुगति और एकविग्रह गति में आहारक दशा ही रहती है और द्विविग्रह तथा त्रिविग्रह गति में प्रथम और चरम इन दो समयों को छोडकर अनुक्रम से मध्यवर्ती एक तथा दो समय पर्यन्त अनाहारक दशा रहती है। कही-कही तीन समय भी अनाहारक दशा के पाँच समय की चार विग्रहवाली गति की सम्भावना की अपेक्षा से माने गए है।
प्रश्न-अन्तराल गति मे शरीर-पोषक आहाररूप से स्थूल पुद्गलो के ग्रहण का अभाव तो ज्ञात हुआ, पर प्रश्न यह है कि उस समय कर्मपुद्गल ग्रहण किये जाते हैं या नही ?
उत्तर-किये जाते है । प्रश्न-किस प्रकार किये जाते है ?
उत्तर-अन्तराल गति में भी संसारी जीवों के कार्मणशरीर अवश्य होता है । अतएव यह शरीरजन्य आत्मप्रदेश-कम्पन, जिसको कार्मण-योग कहते है, अवश्य होता है । जब योग है तब कर्मपुद्गल का ग्रहण भी अनिवार्य है, क्योंकि योग ही कर्मवर्गणा के आकर्षण का कारण है। जैसे जल की वृष्टि के समय फेंका
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