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तत्त्वार्थसूत्र
[२.८
के उदय अथवा योगजनक शरीरनामकर्म के उदय का परिणाम है । इस तरह ये गति आदि इक्कीस पर्याय औदयिक है । ६ ।
पारिणामिक भाव के भेद-जीवत्व ( चैतन्य ), भव्यत्व (मक्ति की योग्यता), अभव्यत्व (मुक्ति की अयोग्यता ) ये तीन भाव स्वाभाविक है अर्थात् न तो वे कर्म के उदय से, न उपशम से, न क्षय से और न क्षयोपशम से उत्पन्न होते है; वे अनादिसिद्ध आत्मद्रव्य के अस्तित्व से ही सिद्ध है, इसी कारण वे पारिणामिक है।
प्रश्न--क्या पारिणामिक भाव तीन ही है ? उत्तर-नहीं, और भी है। प्रश्न--कौन-से है ?
उत्तर-अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, गुणत्व, प्रदेशत्व, असंख्यातप्रदेशत्व, असर्वगतत्व, अरूपत्व आदि अनेक है ।
प्रश्न-फिर तीन ही क्यों बतलाये गए ?
उत्तर-यहाँ जीव का स्वरूप-कथन ही अभीष्ट है जो उसके असाधारण भावों द्वारा ही बतलाया जा सकता है। इसलिए औपशमिक आदि भावों के साथ पारिणामिक भाव भी वे ही बतलाये है जो असाधारण है । अस्तित्व आदि पारिणामिक है अवश्य, पर वे जीव की भांति अजीव में भी होते है। अत वे जीव के असाधारण भाव नही है। इसीलिए यहाँ उनका निर्देश नही किया गया तथापि अन्त के 'आदि' शब्द द्वारा उन्ही को सूचित किया गया है और दिगम्बर सम्प्रदाय मे यही अर्थ 'च' शब्द से लिया गया है। ७ ।
जीव का लक्षण
उपयोगो लक्षणम् । ८। जीव का लक्षण उपयोग है।
जीव, जिसे आत्मा या चेतन भी कहते है, अनादिसिद्ध, स्वतन्त्र द्रव्य है। तात्त्विक दृष्टि से अरूपी होने से उसका ज्ञान इन्द्रियो द्वारा नहीं हो सकता, पर स्वसंवेदन, प्रत्यक्ष तथा अनुमान आदि से उसका ज्ञान हो सकता है । तथापि सामान्य जिज्ञासुओं के लिए एक ऐसा लक्षण बतला देना उचित है जिससे आत्मा की पहचान हो सके। इसी अभिप्राय से प्रस्तुत सूत्र मे जीव का लक्षण बतलाया गया है । आत्मा लक्ष्य ( ज्ञेय ) है और उपयोग लक्षण ( जानने का उपाय ) है । जगत् अनेक जड़-चेतन पदार्थों का मिश्रण है। उसमें से जड़ और
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