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४८ तत्त्वार्थसूत्र
[२. १-७ मावों का स्वरूप-१. औपशमिक भाव उपशम से उत्पन्न होता है। उपशम एक प्रकार की आत्म-शुद्धि है जो सत्तागत कर्म का उदय बिलकुल रुक जाने पर होती है, जैसे मैल तल मे बैठ जाने पर जल स्वच्छ हो जाता है।
२. क्षायिक भाव क्षय से उत्पन्न होता है । क्षय आत्मा की वह परमविशुद्धि है जो कर्म का सम्बन्ध बिलकुल छूट जाने पर प्रकट होती है, जैसे सर्वथा मैल के निकल जाने पर जल नितान्त स्वच्छ हो जाता है।
३. क्षायोपशमिक भाव क्षय और उपशम से उत्पन्न होता है । क्षयोपशम एक प्रकार की आत्मिकशुद्धि है, जो कर्म के एक अश का उदय सर्वथा रुक जाने पर और दूसरे अंश का प्रदेशोदय' द्वारा क्षय होते रहने पर प्रकट होती है । यह विशुद्धि मिश्रित है, जैसे कोदों को धोने से उसकी मादक शक्ति कुछ क्षीण हो जाती है और कुछ रह जाती है।
४. औदयिक भाव उदय से पैदा होता है । उदय एक प्रकार का आत्मिक कालुष्य ( मालिन्य ) है, जो कर्म के विपाकानुभव से होता है, जैसे मैल के मिल जाने पर जल मलिन हो जाता है।
५. पारिमाणिक भाव द्रव्य का परिणाम है, जो द्रव्य के अस्तित्व से अपने आप होता है अर्थात् किसी भी द्रव्य का स्वाभाविक स्वरूप-परिणमन ही पारिणामिक भाव है।
ये पांचों भाव ही आत्मा के स्वरूप है। संसारी या मुक्त कोई भी आत्मा हो, उसके सभी पर्याय इन पाँच भावो मे से किसी-न-किसी भाववाले ही होंगे। अजीव मे पाँचों भाववाले पर्याय सम्भव नहीं है, इसलिए ये भाव अजीव के स्वरूप नही है । उक्त पाँचों भाव सभी जीवों मे एक साथ होने का भी नियम नही है । मुक्त जीवों में दो भाव होते हैं-क्षायिक और पारिणामिक । संसारी जीवों में कोई तीन भाववाला, कोई चार भाववाला, कोई पांच भाववाला होता है, पर दो भाववाला कोई नहीं होता। अर्थात् मुक्त आत्मा के पर्याय दो भावों तक और संसारी आत्मा के पर्याय तीन से लेकर पाँच भावों तक पाये जाते हैं। अतएव पाँच भावों को जीव का स्वरूप जीवराशि की अपेक्षा से या किसी जीवविशेष मे सम्भावना की अपेक्षा से कहा गया है।
औदयिक भाववाले पर्याय वैभाविक और शेष चारों भाववाले पर्याय स्वाभाविक है । १।
१. नीरस किये गये कर्मदलिकों का वेदन प्रदेशोदय है और रस विशिष्ट दलिकों का विपाकवेदन विपाकोदय है ।
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