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२. १-७]
पाँच भावों के भेद और उदाहरण चार ज्ञान, तीन अज्ञान, तीन दर्शन, पांच दानादि लब्धियाँ, सम्यक्त्व, चारित्र ( सर्वविरति ) और संयमासंयम ( देशविरति ) ये अठारह क्षायोपशमिक भाव हैं।
चार गतियां, चार कषाय, तीन लिङ्ग (वेद), एक मिथ्यादर्शन, एक अज्ञान, एक असंयम, एक असिद्धभाव और छः लेश्याएं ये इक्कीस औदयिक भाव हैं।
जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन तथा अन्य भी पारिणामिक भाव हैं।
आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध मे जैनदर्शन का अन्य दर्शनों के साथ कैसा मन्तव्य-भेद है यही बतलाना प्रस्तुत सूत्र का उद्देश्य है । सांख्य और वेदान्त-दर्शन आत्मा को कूटस्थनित्य मानते है तथा उसमें कोई परिणाम नहीं मानते । वे ज्ञान, सुख-दु.खादि परिणामों को प्रकृति या अविद्या के ही मानते है । वैशेषिक और नैयायिक ज्ञान आदि को आत्मा का गुण मानते है सही, फिर भी वे आत्मा को एकान्त नित्य (अपरिणामी) मानते है । नव्य-मीमांसक मत वैशेषिक और नैयायिक जैसा ही है । बौद्ध-दर्शन के अनुसार आत्मा एकान्तक्षणिक अर्थात् निरन्वय' परिणामों का प्रवाह मात्र है । जैनदर्शन का कथन है कि जैसे प्राकृतिक जड़ पदार्थों में न तो कूटस्थनित्यता है और न एकान्तक्षणिकता, किन्तु परिणामिनित्यता है, वैसे ही आत्मा भी परिणामिनित्य है। अतएव ज्ञान, सुख, दुख आदि पर्याय आत्मा के ही है।
आत्मा के सभी पर्याय एक ही अवस्था के नही होते; कुछ पर्याय किसी एक अवस्था के होते है तो दूसरे कुछ पर्याय किसी दूसरी अवस्था के । पर्यायों की वे भिन्न-भिन्न अवस्थाएं ही भाव कहलाती है। आत्मा के पर्याय अधिक से-अधिक पाँच भाववाले हो सकते है । वे पाँच भाव ये है-१. औपशमिक, २. क्षायिक, ३. क्षायोपशमिक, ४. औदयिक और ५. पारिणामिक।
१. विभिन्न क्षणों मे सुख-दुःख अथवा थोडे-बहुत भिन्न विषयक ज्ञानादि परिणामों का जो अनुभव होता है, उन्ही परिणामो को मानना और उनके बीच मत्ररूप मे किसी भी अखण्ड स्थिर तत्त्व को स्वीकार न करना ही निरन्वय परिणामो का प्रवाह है।
२. हथौडे की चाहे जितनी चोटे लगे, तब भी निहाई जैसे स्थिर ही रहती है, वैसे ही देश-कालादि सम्बन्धी विविध परिवर्तनो के होने पर भी जिसमे किचिन्मात्र भी परिवर्तन नही होता वही कटस्थनित्यता है।
३. तीनो कालो मे मूल वस्तु के कायम रहने पर भी देश-कालादि के निमित्त से जो परिवर्तन होता रहता है वह परिणामिनित्यता है ।
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