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१. ३४-३५ ]
नय के भेद
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है । इसी तरह द्रव्यार्थिक नय की भूमिका पर स्थित नैगमादि तीन नय भी पूर्व की अपेक्षा उत्तरोत्तर सूक्ष्म होने से उतने अश मे तो पूर्व की अपेक्षा विशेषगामी है ।
इतने पर भी पहले तीन नयो को द्रव्यार्थिक और बाद के चार नयों को पर्यायार्थिक कहने का तात्पर्य यही है कि प्रथम तीनों में सामान्य तत्त्व और उसका विचार अधिक स्पष्ट है, क्योंकि वे तीनों अधिक स्थूल है । बाद के चार नय विशेष सूक्ष्म है, उनमे विशेष तत्त्व व उसका विचार भी ज्यादा स्पष्ट है । सामान्य और विशेष की इसी स्पष्टता अथवा अस्पष्टता के कारण तथा उनकी मुख्यतागौणता को ध्यान में रखकर ही सात नयों के द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक ये दो विभाग किये गए है । पर वास्तव मे सामान्य और विशेष ये दोनो एक ही वस्तु के अविभाज्य दो पहलू है, अतः एकान्तरूप मे एक नय के विषय को दूसरे नय के विषय से सर्वथा अलग नही किया जा सकता ।
नयदृष्टि, विचारसरणी या सापेक्ष अभिप्राय इन सभी शब्दों का एक ही अर्थ है । पूर्वोक्त वर्णन से इतना अवश्य पता चलता है कि किसी भी एक विषय को लेकर अनेक विचारसरणियाँ हो सकती है | विचारसरणियाँ चाहे जितनी हों, पर संक्षिप्त करके अमुक दृष्टि से उनके सात ही भाग किये गए है । उनमे भी पहली विचारसरणी की अपेक्षा दूसरी मे और दूसरी की अपेक्षा तीसरी में उत्तरोत्तर अधिकाधिक सूक्ष्मत्व आता जाता है। एवंभूत नाम की अन्तिम विचारसरणी में सबसे अधिक सूक्ष्मत्व दिखाई देता है । इसीलिए उक्त चार विचारसरणियों के अन्य प्रकार से भी दो भाग किये गए है -व्यवहारनय और निश्चयनय । व्यवहार अर्थात् स्थूलगामी या उपचार -प्रधान और निश्चय अर्थात् सूक्ष्मगामी या तत्त्वस्पर्शी । वास्तव में एवभूत ही निश्चय की पराकाष्ठा है ।
पूर्वोक्त दृष्टियों के अतिरिक्त और भी अनेक
एक तीसरे प्रकार से भी सात नयो के दो विभाग किये जाते है - शब्दनय और अर्थनय | जिसमे अर्थ का प्राधान्य हो वह अर्थनय और जिसमें शब्द का प्राधान्य हो वह शब्दनय । पहले चार नय अर्थनय है और शेष तीन शब्दनय है । दृष्टियाँ है । जीवन के दो भाग - एक सत्य को पहचानने का और दूसरा सत्य को केवल सत्य का विचार करता है अर्थात् तत्त्वस्पर्शी ( ज्ञाननय ) है और जो भाग तत्त्वानुभव को पचाने में ही पूर्णता समझता है वह क्रियादृष्टि ( क्रियानय ) है ।
पचाने का । जो भाग होता है, वह ज्ञानदृष्टि
ऊपर वर्णित सातों नय तत्त्व-विचारक होने से ज्ञाननय में समा जाते हैं । इन नयो के द्वारा शोधित सत्य को जीवन मे उतारने की दृष्टि ही क्रियादृष्टि है । क्रिया का अर्थ है जीवन को सत्यमय बनाना । ३४-३५ ।
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