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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. ३४-३५
उत्तर
नैगमनय-देश-काल एवं लोक-स्वभाव सम्बन्धी भेदों की विविधता के कारण लोकरूढ़ियाँ तथा तज्जन्य संस्कार भी अनेक तरह के होते है, अतः उनसे उद्भूत नैगमनय भी अनेक तरह का होता है और उसके उदाहरण विविध प्रकार के मिल जाते है, वैसे ही अन्य उदाहरण भी बनाये जा सकते है ।
किसी काम के संकल्प से जानेवाले से कोई पूछता है कि 'आप कहाँ जा रहे है ?' तब वह कहता है कि 'मै कुल्हाड़ी या कलम लेने जा रहा हूँ।'
उत्तर देनेवाला वास्तव मे तो कुल्हाडी के हत्थे ( बेट ) के लिए लकडी अथवा कलम के लिए किलक लेने ही जा रहा होता है, लेकिन पूछनेवाला भी तत्क्षण उसके भाव को समझ जाता है । यह एक लोकरूढि है ।।
जात-पात छोड़कर भिक्षु बने हुए व्यक्ति का परिचय जब कोई पूर्वाश्रम के ब्राह्मण-वर्ण द्वारा कराता है तब भी वह ब्राह्मण श्रमण है' यह कथन तत्काल स्वीकार कर लिया जाता है । इसी तरह लोग चैत्र शुक्ला नवमी व त्रयोदशी को हजारों वर्ष पूर्व के राम तथा महावीर के जन्मदिन के रूप मे मानते है तथा उत्सवादि भी करते है । यह भी एक लोकरूढि है ।
जब कभी कुछ लोग समूहरूप मे लड़ने लगते है तब दूसरे लोग उनके क्षेत्र को ही लड़नेवाला मानकर कहने लगते है कि 'हिन्दुस्तान लड रहा है', 'चीन लड़ रहा है' इत्यादि; ऐसे कथन का आशय सुननेवाले समझ जाते है ।
इस प्रकार लोकरूढ़ियों के द्वारा पड़े संस्कारों के कारण जो विचार उत्पन्न होते है वे सभी नैगमनय के नाम से पहली श्रेणी मे गिन लिये जाते है ।
संग्रहनय-जड, चेतनरूप अनेक व्यक्तियों में जो सद्प एक सामान्य तत्त्व है, उसी पर दृष्टि रखकर दूसरे विशेषों को ध्यान में न रखकर सभी व्यक्तियों को एकरूप मानकर ऐसा विचार करना कि सम्पूर्ण जगत् सद्रूप है, क्योकि सत्तारहित कोई वस्तु है ही नही, यही संग्रहनय है । इसी तरह वस्त्रो के विविध प्रकारों तथा विभिन्न वस्त्रों की ओर लक्ष्य न देकर मात्र वस्त्ररूप सामान्य तत्त्व को ही दृष्टि मे रखकर विचार करना कि 'यहाँ केवल वस्त्र है', यही संग्रहनय है ।
सामान्य तत्त्व के अनुसार तरतमभाव को लेकर संग्रहनय के अनन्त उदाहरण बन सकते है । जितना विशाल सामान्य होगा उतना ही विशाल संग्रहनय भी होगा तथा जितना छोटा सामान्य होगा उतना ही संक्षिप्त संग्रहनय होगा। साराश, जो भी विचार सामान्य तत्त्व के आश्रय से विविध वस्तुओ का एकीकरण करके प्रवृत्त होते है, वे सभी संग्रहनय की कोटि मे आते है ।
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