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१. ३४-३५ ]
नय के भेद
४१
बाद भी
करने का
पडता है ।
व्यवहारनय- विविध वस्तुओं को एक रूप में संकलित करने के जब उनका विशेष रूप में बोध आवश्यक हो या व्यवहार में उपयोग प्रसंग हो तब उनका विशेष रूप से भेद करके पृथक्करण करना 'वस्त्र' कहने मात्र से भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्रों का अलग-अलग बोध नही होता । जो केवल खादी चाहता है वह वस्त्रों का विभाग किये बिना खादी नही पा सकता, अतः खादी का कपड़ा, मिल का कपडा इत्यादि भेद भी करने पडते है । इसी प्रकार तत्त्वज्ञान के क्षेत्र मे सद्रूप वस्तु भी जड़ और चेतन दो प्रकार की है और चेतन तत्त्व भी संसारी और मुक्त दो प्रकार का है, इस तरह के पृथक्करण करने पड़ते है । ऐसे पृथक्करणोन्मुख सभी विचार व्यवहारनय की कोटि में आते है |
ऊपर के उदाहरणों से स्पष्ट है कि नैगमनय का आधार लोकरूढि है | लोकरूढि आरोप पर आश्रित होती है और आरोप सामान्य तत्त्वाश्रयी होता है । इस तरह यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि नैगमनय सामान्यग्राही है । संग्रहनय तो स्पष्ट रूप से एकीकरणरूप बुद्धि-व्यापार होने से सामान्यग्राही है ही । व्यवहारनय में बुद्धि-व्यापार पृथक्करणोन्मुख होने पर भी उसकी क्रिया का आवार सामान्य होने से वह भी सामान्यग्राही ही है । इसीलिए ये तीनो नय द्रव्यार्थिक नय के भेद है ।
प्रश्न- इन तीनों का पारस्परिक भेद और उनका सम्बन्ध क्या है ?
उत्तर -- नैगमनय का विषय सबसे अधिक विशाल है क्योकि वह सामान्य और विशेष दोनों का ही लोकरूढि के अनुसार कभी गौणरूप से और कभी मुख्यरूप से अवलंबन करता है । केवल सामान्यलक्षी होने से सग्रह का विषय नैगम से कम है और व्यवहार का विषय तो संग्रह से भी कम हैं, क्योकि वह संग्रह द्वारा संकलित विषय का ही मुख्य-मुख्य विशेषताओं के आधार पर पृथक्करण करता है, अतः केवल विशेषगामी है । इस तरह विषय क्षेत्र उत्तरोत्तर कम होने से इन तीनों का पारस्परिक पौर्वापर्य सम्बन्ध है । नैगमनय सामान्य, विशेष और इन दोनो के सम्बन्ध की प्रतीति कराता है । इसी मे से संग्रह का उद्भव होता है और संग्रह की भित्ति पर ही व्यवहार का चित्र खीचा जाता है ।
प्रश्न - इसी प्रकार शेष चार नयो की व्याख्या कीजिए, उनके उदाहरण दीजिए तथा दूसरी जानकारी कराइए ।
उत्तर – १. जो विचार भूतकाल और भविष्यत्काल का ध्यान न करके केवल वर्तमान को ही ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्र है ।
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