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नय के भेद चर्चा आ चुकी है । श्रुत विचारात्मक ज्ञान है और नय भी एक तरह का विचारात्मक ज्ञान होने से श्रुत में ही समा जाता है। इसीलिए प्रथम यह प्रश्न उपस्थित होता है कि श्रुत के निरूपण के बाद नयों को उससे भिन्न करके नयवाद की देशना अलग से क्यों की जाती है ? जैन तत्त्वज्ञान की एक विशेषता नयवाद मानी जाती है, लेकिन नयवाद तो श्रुत है और श्रुत कहते है आगम-प्रमाण को । जैनेतर दर्शनों मे भी प्रमाण-चर्चा और उसमे भी आगम-प्रमाण का निरूपण है ही । अल. सहज ही दूसरा प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब आगम-प्रमाण की चर्चा अन्य दर्शनो मे भी है, तब आगम-प्रमाण मे समाविष्ट नयवाद की स्वतन्त्र देशना करने से ही वह जैनदर्शन की अपनी विशेषता कैसे मानी जाय ? अथवा श्रुतप्रमाण के अतिरिक्त नयवाद की स्वतत्र देशना करने मे जैनदर्शन के प्रवर्तको का क्या उद्देश्य था ?
श्रुत और नय दोनो विचारात्मक ज्ञान है ही। किन्तु दोनों मे अन्तर यह है कि किसी भी विषय को सर्वाश मे स्पर्श करनेवाला अथवा सर्वाश मे स्पर्श करने का प्रयत्न करनेवाला विचार श्रुत है और किसी एक अंश को स्पर्श करनेवाला विचार नय है । इस तरह नय को स्वतन्त्र रूप से प्रमाण नही कहा जा सकता, फिर भी वह अप्रमाण नही है। जैसे अगुली का अग्रभाग अंगुली नहीं है, फिर भी उसे 'अंगुली नही है' यह भी नही कह सकते क्योकि वह अगुली का अश तो है ही। इसी तरह नय भी श्रुत-प्रमाण का अंश है। विचार की उत्पत्ति का क्रम और तत्कृत व्यवहार इन दो दृष्टियों से नय का निरूपण श्रुत-प्रमाण से भिन्न करके किया गया है। किसी भी पदार्थ के विभिन्न अंगो के विचार ही अन्त में विशालता या समग्रता मे परिणत होते है । विचार जिस क्रम से उत्पन्न होते है, उसी क्रम से तत्त्वबोध के उपायरूप से उनका वर्णन होना चाहिए। इसे मान लेने से स्वाभाविक तौर से नय का निरूपण श्रुत-प्रमाण से अलग करना संगत हो जाता है और किसी एक विषय का समग्ररूप से कितना भी ज्ञान हो तो भी व्यवहार मे उस ज्ञान का उपयोग एक-एक अंश को लेकर ही होता है। इसीलिए समग्र विचारात्मक श्रुत से अश-विचारात्मक नय का निरूपण भिन्न किया जाता है।
यद्यपि जैनेतर दर्शनों मे आगम-प्रमाण की चर्चा है तथापि उसी प्रमाण में समाविष्ट नयवाद की जैनदर्शन ने जो स्वतन्त्र रूप से प्रतिष्ठा की है उसका अपना कारण है और वही इसकी विशेषता के लिए पर्याप्त है। सामान्यत मनुष्य की ज्ञानवृत्ति अधूरी होती है और अस्मिता ( अभिनिवेश) अत्यधिक होता है । जब वह किसी विषय में कुछ भी सोचता है तब वह उसको ही अन्तिम व
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