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तत्त्वार्थसूत्र
[१. ३२-३३ दूसरे आचार्यो का कथन है कि मति आदि चार ज्ञानशक्तियाँ आत्मा में स्वाभाविक नहीं है, किन्तु कर्म-क्षयोपशमरूप होने से औपाधिक अर्थात् कर्मसापेक्ष है । इसलिए ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा अभाव हो जाने पर-जब कि केवलज्ञान प्रकट होता है--औपाधिक शक्तियाँ सम्भव हो नही है। इसलिए केवलज्ञान के समय कैवल्यशक्ति के सिवाय न तो अन्य ज्ञानशक्तियाँ ही रहती है और न उनका मति आदि ज्ञानपर्यायरूप कार्य ही रहता है । ३१ ।
विपर्यय ज्ञान का निर्धारण और विपर्ययता के हेतु मतिश्रुताऽवधयो विपर्ययश्च । ३२ ।
सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धरुन्मत्तवत् । ३३ । मति, श्रुत और अवधि ये तीनों विपर्यय ( अज्ञानरूप ) भी हैं।
वास्तविक और अवास्तविक का अन्तर न जानने से यदृच्छोपलब्धि (विचारशून्य उपलब्धि ) के कारण उन्मत्त की तरह ज्ञान भी अज्ञान ही है।
मति, श्रुत आदि पाँचों ज्ञान चेतनाशक्ति के पर्याय है । इनका कार्य अपनेअपने विषय को प्रकाशित करना है । अतः ये सब ज्ञान कहलाते है । परन्तु इनमे से पहले तीनों को ज्ञान व अज्ञानरूप माना गया है । जैसे मतिज्ञान, मति-अज्ञान, श्रुतज्ञान, श्रुत-अज्ञान, अवधिज्ञान, अवधि-अज्ञान अर्थात् विभङ्गज्ञान ।
प्रश्न-मति, श्रुत और अवधि ये तीनों पर्याय जब अपने-अपने विषय का बोध कराने के कारण ज्ञान है, तब उन्ही को अज्ञान क्यों कहा जाता है ? क्योंकि ज्ञान और अज्ञान दोनों शब्द परस्परविरुद्ध अर्थ के वाचक होने से प्रकाश और अन्धकार शब्द की तरह एक ही अर्थ में लागू नहीं हो सकते ।
उत्तर-उक्त तीनों पर्याय लौकिक संकेत के अनुसार तो ज्ञान ही है, परन्तु यहाँ उन्हे ज्ञान और अज्ञानरूप शास्त्रीय संकेत के अनुसार ही कहा जाता है । आध्यात्मिक शास्त्र का संकेत है कि मति, श्रुत और अवधि ये तीनो ज्ञानात्मक पर्याय मिथ्यादृष्टि के अज्ञान है और सम्यग्दृष्टि के ज्ञान ।।
प्रश्न-यह कैसे कह सकते है कि केवल सम्यग्दृष्टि आत्मा ही प्रामाणिक व्यवहार चलाते है और मिथ्यादृष्टि नही चलाते ? यह भी नहीं कहा जा सकता कि सम्यग्दृष्टि को संशय या भ्रमरूप मिथ्याज्ञान बिलकुल नहीं होता और मिथ्यादृष्टि को ही होता है । यह भी सम्भव नही कि इन्द्रिय आदि साधन सम्यग्दृष्टि के तो पूर्ण तथा निर्दोष ही हो और मिथ्यादृष्टि के अपूर्ण तथा दुष्ट हों। यह भी कैसे कहा जा सकता है कि विज्ञान व साहित्य आदि विषयों पर अपूर्व प्रकाश डालनेवाले
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