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३२ तत्त्वार्थसूत्र
[ १. ३१. मतिज्ञान की अपेक्षा से मतिज्ञान के ग्राह्य सब द्रव्य मानने में कोई विरोध नही है।
प्रश्न-स्वानुभूत या शास्त्रश्रुत विषयों मे मन के द्वारा मतिज्ञान भी होगा और श्रुतज्ञान भी, तब दोनों मे अन्तर क्या है ?
उत्तर-जब मानसिक चिन्तन शब्दोल्लेख सहित हो तब वह श्रुतज्ञान है और जब शब्दोल्लेख रहित हो तब मतिज्ञान है।
परम प्रकर्षप्राप्त परमावधि-ज्ञान जो अलोक में भी लोकप्रमाण असंख्यात खण्डो को देखने का सामर्थ्य रखता है, वह भी मात्र मूर्त द्रव्यों का साक्षात्कार कर पाता है, अमूर्त द्रव्यों का नहीं। इसी तरह वह मूर्त द्रव्यों के भी सम्पूर्ण पर्यायो को नही जान सकता।
मनःपर्याय-ज्ञान भी मूर्त द्रव्यों का ही साक्षात्कार करता है, पर अवधिज्ञान के बराबर नही। अवधिज्ञान के द्वारा सब प्रकार के पुद्गलद्रव्य ग्रहण किये जा सकते हैं, पर मन पर्यायज्ञान के द्वारा केवल मनरूप बने हुए पुद्गल और वे भी मानुषोत्तर क्षेत्र के अन्तर्गत ही ग्रहण किये जा सकते है। इसी कारण मनःपर्यायज्ञान का विषय अवधिज्ञान के विषय का अनन्तवा भाग है । मन.पर्यायज्ञान कितना ही विशुद्ध हो, अपने ग्राह्य द्रव्यों के सम्पूर्ण पर्यायो को नही जान सकता । यद्यपि मनःपर्यायज्ञान के द्वारा साक्षात्कार तो केवल चिन्तनशील मूर्त मन का ही होता है पर बाद मे होनेवाले अनुमान से तो उस मन के द्वारा चिन्तन किये गये मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्य जाने जा सकते है ।
मति आदि चारों ज्ञान कितने ही शुद्ध हों पर वे चेतनाशक्ति के अपूर्ण विकसितरूप होने से एक वस्तु के भी समग्र भावों को जानने में असमर्थ है। नियम यह है कि जो ज्ञान किसी एक वस्तु के सम्पूर्ण भावो को जान सकता है वह सब वस्तुओ के सम्पूर्ण भावों को भी ग्रहण कर सकता है । वही ज्ञान पूर्णज्ञान कहलाता है, उसी को केवलज्ञान कहते है । यह ज्ञान चेतनाशक्ति के सम्पूर्ण विकास के समय प्रकट होता है । अतः इसके अपूर्णताजन्य भेद-प्रभेद नही है । कोई भी वस्तु या भाव ऐसा नही है जो इसके द्वारा प्रत्यक्ष न जाना जा सके । इसीलिए केवलज्ञान की प्रवृत्ति सब द्रव्यों और सब पर्यायो में मानी गई है । २७-३० ।
__ एक आत्मा में एक साथ पाये जानेवाले ज्ञान एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्व्यः । ३१ । एक आत्मा में एक साथ एक से लेकर चार तक ज्ञान विकल्प सेअनियत रूप से होते हैं।
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