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तत्त्वार्थ सूत्र
प्रश्न - ऋजुमति और विपुलमति का क्या अर्थ है ?
उत्तर - जो विषय को सामान्य रूप से जानता है वह ऋजुमति मन पर्यायज्ञान है और जो विशेष रूप से जानता है वह विपुलमति मनःपर्यायज्ञान है । प्रश्न- जब ऋजुमति ज्ञान सामान्यग्राही है तब तो उसे 'दर्शन' ही कहना चाहिए, ज्ञान क्यों कहा जाता है ?
उत्तर
-
- उसे सामान्यग्राही कहने का अभिप्राय इतना ही है कि वह विशेषों को तो जानता है पर विपुलमति के जितने विशेषों को नही जानता ।
ऋजुमति की अपेक्षा विपुलमति मन पर्यायज्ञान विशुद्धतर होता है क्योकि वह सूक्ष्मतर और अधिक विशेषो को स्फुटलया जान सकता है । इसके अतिरिक्त दोनो मे यह भी अन्तर है कि ऋजुमति उत्पन्न होने के बाद कदाचित् नष्ट भी हो जाता है, पर विपुलमति केवलज्ञान की प्राप्तिपर्यन्त बना ही रहता है । २४-२५ । अवधि और मनःपर्याय में अन्तर
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विशुद्धिक्षेत्र स्वामिविषयेभ्योऽवधिमनः पर्याययोः । २६ ।
विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषय के द्वारा अवधि और मनःपर्याय में अन्तर होता है ।
यद्यपि अवधि और मन. पर्याय दोनों पारमार्थिक विकल ( अपूर्ण ) प्रत्यक्ष रूप से समान है तथापि दोनो मे कई प्रकार का अन्तर है, जैसे विशुद्धिकृत, क्षेत्रकृत, स्वामिकृत और विषयकृत । १. मनः पर्यायज्ञान अवधिज्ञान की अपेक्षा अपने विषय को बहुत विशद रूप से जानता है इसलिए उससे विशुद्धतर हैं । २. अवधिज्ञान का क्षेत्र अंगुल के असंख्यातवे भाग से लेकर सम्पूर्ण लोक तक है और मनःपर्यायज्ञान का क्षेत्र मानुषोत्तर पर्वतपर्यन्त ही है । ३. अवधिज्ञान के स्वामी चारों गतिवाले हो सकते है पर मन पर्याय के स्वामी केवल संयत मनुष्य ही है । ४. अवधि का विषय कतिपय पर्यायसहित रूपी द्रव्य है पर मनःपर्याय का विषय तो केवल उसका अनन्तवाँ भाग है, मात्र मनोद्रव्य है । प्रश्न - विषय कम होने पर भी मन पर्यान जाता है ?
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अवधि से विशुद्धतर कैसे माना
[ १ २६.
उत्तर -- त्रिशुद्धि का आधार विषय की न्यूनाधिकता नही है, विषयगत न्यूनाधिक सूक्ष्मताओ को जानना है । जैसे दो व्यक्तियो मे से एक अनेक शास्त्रों को जानता है और दूसरा केवल एक शास्त्र, तो भी अनेक शास्त्रों के ज्ञाता की अपेक्षा एक शास्त्र को जाननेवाला व्यक्ति अपने विषय को सूक्ष्मताओ को अधिक जानता हो तो उसका ज्ञान पहले की अपेक्षा विशुद्धतर कहलाता है । वैसे ही विषय १. देखे -
-- अ० १, सू० २६ ।
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