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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. २१-२३ होने से सुविधा की दृष्टि से अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय ये दो नाम रखे गये है।
देहधारी जीवों के चार वर्ग है-नारक, देव, तिर्यञ्च और मनुष्य । इनमे से पहले दो वर्गवाले जीवों मे भवप्रत्यय अर्थात् जन्म से ही अवधिज्ञान होता है और पिछले दो वर्गवालों मे गुणप्रत्यय अर्थात् गुणों से अवधिज्ञान होता है ।
प्रश्न-जब सभी अवधिज्ञानवाले देहधारी ही है तब ऐसा क्यों है कि किसी को तो बिना प्रयत्न के ही जन्म से वह प्राप्त हो जाता है और किसी को उसके लिए विशेष प्रयत्न करना पडता है ?
उत्तर-कार्य की विचित्रता अनुभवसिद्ध है । सब जानते है कि पक्षियों को जन्म लेते ही आकाश में उडने की शक्ति प्राप्त हो जाती है और मनुष्य आकाश मे उड नहीं सकता जब तक कि वह विमान आदि का सहारा न ले। हम यह भी देखते है कि कितने ही लोगों मे काव्यशक्ति जन्मसिद्ध होती है और कितने ही लोगों को वह बिना प्रयत्न के प्राप्त ही नही होती।
तिर्यञ्चों और मनुष्यों के अवधिज्ञान के छः भेद है-आनुगामिक, अनानुगामिक, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित ।
१. जैसे वस्त्र आदि किसी वस्तु को जिस स्थान पर रंग लगाया है वहाँ से उसे हटा लेने पर भी रंग कायम ही रहता है वैसे ही जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्र को छोड़कर दूसरी जगह चले जाने पर भी कायम रहता है उसे आनुगामिक कहते है ।
२. जैसे किसी का ज्योतिष-ज्ञान ऐसा होता है कि वह प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर अमुक स्थान मे ही दे सकता है, दूसरे स्थान मे नही, वैसे ही जो अवधिज्ञान अपने उत्पत्तिस्थान को छोड देने पर कायम नहीं रहता उसे अनानुगामिक कहते है।
३. जैसे दियासलाई या अरणि आदि से उत्पन्न आग की चिनगारी बहुत छोटी होने पर भी अधिकाधिक सूखे इंधन आदि को पाकर क्रमशः बढती जाती है वैसे ही जो अवधिज्ञान उत्पत्तिकाल मे अल्पविषयक होने पर भी परिणामशुद्धि के बढ़ते जाने से क्रमश. अधिकाधिक विषयक होता जाता है उसे वर्धमान कहते है।
४. जैसे परिमित दाह्य वस्तुओं में लगी हुई आग नया दाह्य न मिलने से क्रमश. घटती जाती है वैसे ही जो अवधिज्ञान उत्पत्ति के समय अधिक विषयक होने पर भी परिणाम-शुद्धि कम होते जाने से क्रमश. अल्प-अल्प दिपयक होता जाता है उसे हीयमान कहते है।
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