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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. २०. उत्तर-आचार, सूत्रकृत, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवतीसूत्र ), ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, विपाक और दृष्टिवाद ये बारह अङ्ग है । सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दनक, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान ये छः आवश्यक तथा दशवकालिक, उत्तराध्ययन, दशाश्रुतस्कंध, कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित' आदि शास्त्र अङ्गबाह्य हैं।
प्रश्न-ये भेद तो ज्ञान को व्यवस्थितरूप में संगृहीत करनेवाले शास्त्रों के है, तो क्या शास्त्र इतने ही है ?
उत्तर-नहीं। शास्त्र अनेक थे, अनेक है, अनेक बनते है और आगे भी बनते ही रहेगे । वे सभी श्रुत-ज्ञानान्तर्गत है । यहाँ केवल वे ही गिनाये गये है जिन पर प्रधानतया जैनशासन आधृत है। इनके अतिरिक्त और भी अनेक शास्त्र बने है और बनते रहते है। इन सभी को अङ्गबाह्य में समाविष्ट कर लेना चाहिए, यदि वे शुद्ध-बुद्धि और समभावपूर्वक रचे गये हों।।
प्रश्न--आजकल विविध विज्ञान विषयक तथा काव्य, नाटक आदि लौकिक विषयक जो अनेक शास्त्र रचे जाते है, क्या वे भी श्रुत है ?
उत्तर-अवश्य, वे भी श्रुत है । प्रश्न-तब तो श्रुतज्ञान होने से वे भी मोक्ष के लिए उपयुक्त हो सकेंगे ?
उत्तर-मोक्ष मे उपयोगी होना या न होना किसी शास्त्र का नियत स्वभाव नहीं है, पर अधिकारी की योग्यता उसका आधार है । अगर अधिकारी योग्य
और मुमुक्षु है तो लौकिक शास्त्रो को भी मोक्षोपयोगी बना सकता है और अयोग्य पात्र आध्यात्मिक कहे जानेवाले शास्त्रों से भी अपने को नीचे गिराता है । तथापि विषय और प्रणेता की योग्यता की दृष्टि से लोकोत्तर श्रुत का विशेषत्व अवश्य है।
प्रश्न-'श्रुत' ज्ञान है, फिर भाषात्मक शास्त्रो को या जिन पर वे लिखे जाते है उन कागज आदि साधनो को श्रुत क्यों कहा जाता है ? ___ उत्तर-केवल उपचार से । वास्तव मे श्रुत तो ज्ञान ही है । पर ऐसे ज्ञान को प्रकाशित करने का साधन भाषा है और भाषा भी ऐसे ज्ञान से ही उत्पन्न होती है तथा कागज आदि भी उस भाषा को लिपिबद्ध करके व्यवस्थित रखने के साधन है। इसीलिए भाषा या कागज आदि को उपचार से श्रुत कहा जाता है । २० ।
१. प्रत्येक बुद्ध आदि ऋषियो द्वारा जो कथन किया गया हो उसे ऋषिभाषित कहते है । जैसे उत्तराध्ययन का आठवाँ कापिलीय अध्ययन इत्यादि।
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