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१. २४-२५.] मन.पर्याय के भंद और उनका अन्तर ।
५. जैसे किसी प्राणी को एक जन्म मे प्राप्त पुरुष आदि वेद' या दूसरे अनेक तरह के शुभ-अशुभ संस्कार दूसरे जन्म मे साथ जाते है या आजन्म कायम रहते है वैसे ही जो अवधिज्ञान जन्मान्तर होने पर भी आत्मा मे कायम रहता है या केवलज्ञान की उत्पत्ति तक अथवा आजन्म टिकता है उसे अवस्थित कहते है।
६. जलतरङ्ग की तरह जो अवधिज्ञान कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी आविर्भूत होता है और कभी तिरोहित होता है उसे अनवस्थित कहते है।
यद्यपि तीर्थङ्कर मात्र को तथा किसी अन्य मनुष्य को भी अवधिज्ञान जन्म से प्राप्त होता है तथापि उसे गुणप्रत्यय ही समझना चाहिए, क्योकि योग्य गुण न होने पर अवधिज्ञान आजन्म नही रहता, जैसे कि देव या नरकगति मे रहता है । २१-२३ ।
मनःपर्याय के भेद और उनका अन्तर ऋजुविपुलमती मनःपर्यायः । २४ ।
विशुद्धचप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः । २५ । ऋजुमति और विपुलमति ये दो मनःपर्यायज्ञान हैं। विशुद्धि से और पतन के अभाव से उन दोनों का अन्तर है।
मनवाले (संज्ञी) प्राणी किसी भी वस्तु या पदार्थ का चिन्तन मन द्वारा करते है । चिन्तनीय वस्तु के भेद के अनुसार चिन्तन मे प्रवृत मन भिन्न-भिन्न आकृतियों को धारण करता रहता है । वे आकृतियाँ ही मन के पर्याय है और उन मानसिक आकृतियों को साक्षात् जाननेवाला ज्ञान मन पर्याय है। इस ज्ञान से चिन्तनशील मन की आकृतियाँ जानी जाती है पर चिन्तनीय वस्तुएँ नही जानी जा सकती।
प्रश्न-तो फिर क्या चिन्तनीय वस्तुओं को मनःपर्यायज्ञानवाला जान नही सकता ?
उत्तर-जान सकता है, पर बाद में अनुमान के द्वारा । प्रश्न-किस प्रकार ?
उत्तर-जैसे मानसशास्त्री किसी का चेहरा या हावभाव देखकर उस व्यक्ति के मनोभावों तथा सामर्थ्य का ज्ञान अनुमान से करता है वैसे ही मनःपर्यायज्ञानी मनःपर्याय-ज्ञान से किसी के मन की आकृतियों को प्रत्यक्ष देखकर बाद मे अभ्यासवश अनुमान कर लेता है कि इस व्यक्ति ने अमुक वस्तु का चिन्तन किया, क्योंकि इसका मन उस वस्तु के चिन्तन के समय अवश्य होनेवाला अमुकअमुक प्रकार की आकृतियों से युक्त है ।
१. देखें-अ० २, सू० ६ ।
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