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१. २७-३०.] पाँचों ज्ञानो के ग्राह्य विषय अल्प होने पर भी उसकी सूक्ष्मताओं को अधिक जानने के कारण मनःपर्याय को अवधि से विशुद्धतर कहा गया है । २६ ।
पाँचों ज्ञानों के ग्राह्य विषय मतिश्रुतयोनिबन्धः सर्वद्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु । २७ । रूपिष्ववधेः । २८॥ तदनन्तभागे मनःपर्यायस्य । २९ ।
सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । ३० । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की प्रवृत्ति (ग्राह्यता ) सर्व-पर्यायरहित अर्थात् परिमित पर्यायों से युक्त सब द्रव्यों में होती है । ___ अवधिज्ञान की प्रवृत्ति सर्वपर्यायरहित केवल रूपो ( मूर्त ) द्रव्यों में होती है।
मनःपर्यायज्ञान की प्रवृत्ति उस रूपी द्रव्य के सर्वपर्यायरहित अनन्तवें भाग में होती है।
केवलज्ञान की प्रवृत्ति सभी द्रव्यों में और सभी पर्यायों में होती है ।
मति और श्रुतज्ञान के द्वारा रूपी, अरूपी सभी द्रव्य जाने जा सकते है पर पर्याय उनके कुछ ही जाने जा सकते है, सब नही ।।
प्रश्न उक्त कथन से ज्ञात होता है कि मति और श्रुत के ग्राह्य विषयो में न्यूनाधिकता है ही नहीं, क्या यह सही है ?
उत्तर-द्रव्यरूप ग्राह्य की अपेक्षा से तो दोनों के विषयों में न्यूनाधिकता नही है । पर पर्यायरूप ग्राह्य की अपेक्षा से दोनों के विषयो मे न्यूनाधिकता अवश्य है। ग्राह्य पर्यायो की न्यूनाधिकता होने पर भी समानता इतनी ही है कि वे दोनों ज्ञान द्रव्यो के परिमित पर्यायों को ही जान सकते है, सम्पूर्ण पर्यायों को नही । मतिज्ञान वर्तमानग्राही होने से इन्द्रियों की शक्ति और आत्मा की योग्यता के अनुसार द्रव्यों के कुछ-कुछ वर्तमान पर्यायों को ही ग्रहण करता है पर श्रुतज्ञान त्रिकालग्राही होने से तीनों कालों के पर्यायों को थोडेबहुत प्रमाण मे ग्रहण करता है।
प्रश्न-मतिज्ञान चक्षु आदि इन्द्रियों से पैदा होता है और इन्द्रियाँ केवल मूर्त द्रव्य को ही ग्रहण कर सकती है। फिर मतिज्ञान के ग्राह्य सब द्रव्य किस प्रकार माने गए ?
उत्तर-मतिज्ञान इन्द्रियों की तरह मन से भी होता है और मन स्वानुभूत या शास्त्रश्रुत सभी मूर्त-अमूर्तद्रव्यों का चिन्तन करता है। इसलिए मनोजन्य
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