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१. २०.] श्रुतज्ञान का स्वरूप और उसके भेद
२५ का कारण श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है । इस कथन से भी दोनों का भेद समझ में नही आता, क्योंकि क्षयोपशम-भेद साधारण बुद्धिगम्य नहीं है ।
उत्तर-- मतिज्ञान विद्यमान वस्तु मे प्रवृत्त होता है और श्रुतज्ञान अतीत, विद्यमान तथा भावी इन त्रैकालिक विषयों मे प्रवृत्त होता है। इस विषयकृत भेद के सिवाय दोनों में यह भी अन्तर है कि मतिज्ञान में शब्दोल्लेख नही होता
और श्रुतज्ञान में होता है । अतएव दोनो का फलित लक्षण यह है कि जो ज्ञान इन्द्रियजन्य और मनोजन्य होने पर भी शब्दोल्लेख' सहित है वह श्रुतज्ञान है, और शब्दोल्लेख रहित मतिज्ञान है। सारांश यह है कि दोनों मे इन्द्रिय और मन की अपेक्षा समान होने पर भी मति की अपेक्षा श्रुत का विषय अधिक है और स्पष्टता भी अधिक है, क्योंकि श्रुत में मनोव्यापार की प्रधानता होने से विचारांश अधिक व स्पष्ट होता है और पूर्वापर क्रम भी बना रहता है। दूसरे शब्दो मे, इन्द्रिय तथा मनोजन्य दीर्घ ज्ञानव्यापार का प्राथमिक अपरिपक्व अश मतिज्ञान और उत्तरवर्ती परिपक्व व स्पष्ट अंश श्रुतज्ञान है । अतः यो भी कहा जाता है कि जो ज्ञान भाषा में उतारा जा सके वह श्रुतज्ञान है और जो भाषा मे उतारने लायक परिपाक को प्राप्त न हो वह मतिज्ञान है । श्रुतज्ञान खीर है तो मतिज्ञान दूध ।
प्रश्न -श्रुत के दो, अनेक और बारह प्रकार कैसे है ?
उत्तर-अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट के रूप मे श्रुतज्ञान दो प्रकार का है । इनमे से अङ्गबाह्य श्रुत उत्कालिक-कालिक के भेद से अनेक प्रकार का है। अङ्गप्रविष्ट श्रुत आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग आदि के रूप मे बारह प्रकार का है।
प्रश्न-अङ्गबाह्य और अङ्गप्रविष्ट का अन्तर किस अपेक्षा से है ?
उत्तर-वक्तृभेद की अपेक्षा से । तीर्थङ्करो द्वारा प्रकाशित ज्ञान को उनके परम मेधावी साक्षात् शिष्य गणधरों ने ग्रहण करके जो द्वादशाङ्गी रूप मे सूत्रबद्ध किया वह अङ्गप्रविष्ट है; और कालदोषकृत बुद्धि, बल और आयु की कमी को देखकर सर्वसाधारण के हित के लिए उसी द्वादशाङ्गी मे से भिन्न-भिन्न विषयों पर गणधरों के पश्चाद्वर्ती शुद्ध-बुद्धि आचार्यो के शास्त्र अङ्गबाह्य है, अर्थात् जिन शास्त्रों के रचयिता गणधर है वह अङ्गप्रविष्ट श्रुत है और जिनके रचयिता अन्य आचार्य है वह अङ्गबाह्य श्रुत है ।
प्रश्न-बारह अङ्ग कौन से है ? अनेकविध अङ्गबाह्य में मुख्यतः कौन-कौन से प्राचीन ग्रन्थ है ?
१. शब्दोल्लेख का मतलब व्यवहारकाल भे शब्दशक्तिग्रहजन्यत्व मे है अर्थात् जैसे श्रुतज्ञान की उत्पत्ति के समय संकेत, स्मरण और श्रतग्रन्थ का अनुसरण अपेक्षित है वैसे ईहा आदि मतिज्ञान की उत्पत्ति मे अपेक्षित नही है ।
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