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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. १८-१९
दृष्टि मे आने जैसा नही था, पर सकोरे मे वह था अवश्य । जब जल की मात्रा बढ़ी और सकोरे की सोखने की शक्ति कम हुई, तब आर्द्रता दिखाई देने लगी और जो जल प्रथम सकोरे के पेट मे नही समा सका था वही अब उसके ऊपर के तल मे इकट्ठा होने लगा और दिखलाई देने लगा। इसी तरह जब किसी सुषुप्त व्यक्ति को पुकारा जाता है तब वह शब्द उसके कान मे गायब-सा हो जाता है दो-चार बार पुकारने से उसके कान मे जब पौद्गलिक शब्दों की मात्रा काफी मात्रा मे भर जाती है तब जलकणों से पहले पहल आर्द्र होनेवाले सकोरे की तरह उस सुषुप्त व्यक्ति के कान भी शब्दो से परिपूरित होकर उनको सामान्य रूप से जानने में समर्थ होते है कि 'यह क्या है। यही सामान्य ज्ञान है जो शब्द को पहले पहल स्फुट रूप मे जानता है । इसके बाद विशेष ज्ञान का क्रम शुरू होता है अर्थात् जैसे कुछ काल तक जलबिन्दु पडते रहने से रूक्ष सकोरा क्रमश आर्द्र बन जाता है और उसमें जल दिखाई देता है वैसे ही कुछ काल तक शब्दपुद्गलों का संयोग होते रहने से सुषुप्त व्यक्ति के कान परिपूरित होकर उन शब्दों को सामान्य रूप में जान पाते है और फिर शब्दों की विशेषताओ को जानते है । यद्यपि यह क्रम सुषुप्त की तरह जाग्रत व्यक्ति पर भी पूरी तरह लागू होता है पर वह इतना शीघ्र होता है कि साधारण लोगों के ध्यान मे मुश्किल से आता है। इसीलिए सकोरे के साथ सुषुप्त व्यक्ति का साम्य दिखलाया जाता है।।
पटुक्रम की ज्ञानधारा के लिए दर्पण का दृष्टान्त उपयुक्त है। जैसे दर्पण के सामने किसी वस्तु के आते ही तुरन्त उसका उसमे प्रतिबिंब पड़ जाता है और वह दिखाई देने लगता है । इसके लिए दर्पण के साथ प्रतिबिंबित वस्तु का साक्षात् संयोग आवश्यक नही है, जैसे कान के साथ शब्दों का साक्षात् संयोग । केवल प्रतिबिंबग्राही दर्पण और प्रतिबिंबित होनेवाली वस्तु का योग्य देश में सन्निधान आवश्यक है । ऐसा सन्निधान होते ही प्रतिबिंब पड जाता है और वह तुरन्त ही दीख पडता है। इसी तरह नेत्र के सामने रगवाली वस्तु के आते ही तुरन्त वह सामान्य रूप मे दिखाई देने लगती है । इसके लिए नेत्र और उस वस्तु का संयोग अपेक्षित नहीं है, जैसे कान और शब्द का संयोग । केवल दर्पण की तरह नेत्र का और उस वस्तु का योग्य सन्निधान चाहिए । इसीलिए पटुक्रम में पहले पहल अर्थावग्रह माना गया है ।
व्यञ्जनावग्रह का स्थान मन्दक्रमिक ज्ञानधारा मे है, पटुक्रमिक ज्ञानधारा में नहीं । इसलिए प्रश्न होता है कि व्यञ्जनावग्रह किस किस इन्द्रिय से होता है और किस-किस से नही होता ? इसी का उत्तर प्रस्तुत सूत्र मे दिया गया है । नेत्र और मन से व्यञ्जनावग्रह नहीं होता क्योकि ये दोनो सयोग विना ही क्रमशः किये हुए योग्य सन्निधान मात्र से और अवधान से अपने-अपने ग्राह्य विषय को जानते है ।
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