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१.१८-१९ ]
अवग्रह के अवान्तर भेद
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उसे व्यञ्जनावग्रह से अलग कहने का और अर्थावग्रह कहने का प्रयोजन यह है कि उस ज्ञानाश से होनेवाला विषय का बोध ज्ञाता के ध्यान मे आ सकता है । अर्थावग्रह के बाद उसके द्वारा सामान्य रूप से जाने हुए विषष की विशेष रूप से जिज्ञासा, उसका विशेष निर्णय, उस निर्णय की धारा, तज्जन्य संस्कार और संस्कारजन्य स्मृति-यह सब ज्ञानव्यापार ईहा, अवाय और धारणा रूप से तीन विभागों मे पहले बतलाया जा चुका है । यह बात नही भूलनी चाहिए कि इस मन्दक्रम मे जो उपकरणेन्द्रिय और विषय के संयोग की अपेक्षा कही गई है वह व्यञ्जनावग्रह के अन्तिम अंश अर्थावग्रह तक ही है। इसके बाद ईहा, अवाय आदि ज्ञानव्यापार में वह संयोग अनिवार्य रूप से अपेक्षित नहीं है, क्योकि उस ज्ञानव्यापार की प्रवृत्ति विशेष की ओर होने से उस समय मानसिक अवधान की प्रधानता रहती है । इसी कारण अवधारणयुक्त व्याख्यान करके प्रस्तुत सूत्र के अर्थ मे कहा गया है कि 'व्यञ्जनस्यावग्रह एव' व्यञ्जन का अवग्रह ही होता है अर्थात् अवग्रह ( अव्यक्त ज्ञान ) तक ही व्यञ्जन की अपेक्षा है, ईहा आदि मे नही । __ पटुक्रम में उपकरणेन्द्रिय और विषय के सग की अपेक्षा नही है । दूर, दूरतर होने पर भी योग्य सन्निधान मात्र से इन्द्रिय उस विषय को ग्रहण कर लेती है
और ग्रहण होते ही उस विषय का उस इन्द्रिय द्वारा शुरू मे ही अर्थावग्रहरूप सामान्य ज्ञान उत्पन्न होता है। इसके बाद क्रमशः ईहा, अवाय आदि ज्ञानव्यापार पूर्वोक्त मन्दक्रम की तरह ही प्रवृत्त होता है । सारांश यह है कि पटुक्रम मे इन्द्रिय के साथ ग्राह्य विषय का संयोग हुए बिना ही ज्ञानधारा का आविर्भाव होता है जिसका प्रथम अंश अर्थावग्रह और चरम अंश स्मृतिरूप धारणा है । इसके विपरीत मन्दकप मे इन्द्रिय के साथ ग्राह्य विषय का संयोग होने पर ही ज्ञानधारा का आविर्भाव होता है, जिसका प्रथम अंश अव्यक्ततम, अव्यक्ततररूप व्यञ्जनावग्रह नामक ज्ञान, दूसरा अंश अर्थावग्रहरूप ज्ञान और चरम अंश स्मृतिरूप धारणा ज्ञान है ।
दृष्टान्त-मन्दक्रम की ज्ञानधारा, जिसके आविर्भाव के लिए इन्द्रिय-विषयसंयोग की अपेक्षा है, को स्पष्टतया समझने के लिए सकोरे का दृष्टान्त उपयोगी है । जैसे आवाप-भट्ठ में से तुरन्त निकाले हुए अति रूक्ष सकोरे मे पानी की एक बंद डाली जाय तो सकोरा उसे तुरन्त ही सोख लेता है, यहाँ तक कि उसका कोई नामोनिशान नही रहता । इसी तरह आगे भी एक-एक कर डाली गयी अनेक जलबूंदों को वह सकोरा सोख लेता है। अन्त मे ऐसा समय आता है जब कि वह जलबूंदों को सोखने में असमर्थ होकर उनसे भीग जाता है और उसमे डाले हुए जलकण समूहरूप मे इकट्ठे होकर दिखाई देने लगते है। सकोरे की आर्द्रता पहले पहल जब मालूम होती है, उसके पूर्व भी उसमे जल था, पर उसने इस तरह जल को सोख लिया था कि जल के बिलकुल तिरोभूत हो जाने से
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