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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. १६ का ही स्पर्श है, फूल का नही। इस प्रकार से स्पर्श को निश्चित रूप से जाननेवाले उक्त चारों ज्ञान निश्चितग्राही अवग्रह आदि कहलाते है । यह चन्दन का स्पर्श होगा या फूल का, क्योकि दोनों शीतल होते है - इस प्रकार से विशेष की अनुपलब्धि के समय होनेवाले संदेहयुक्त चारो ज्ञान अनिश्चितग्राही अवग्रह आदि कहलाते है।
ध्रुव अर्थात् अवश्यम्भावी और अध्रुव अर्थात् कदाचिद्भावी । यह देखा गया है कि इन्द्रिय और विषय का सम्बन्ध तथा मनोयोगरूप सामग्री समान होने पर भी एक मनुष्य उस विषय को जान ही लेता है और दूसरा उसे कभी जान पाता है, कभी नही। सामग्री होने पर विषय को जाननेवाले उक्त चारों ज्ञान ध्रुवग्राही अवग्रह आदि कहलाते है और सामग्री होने पर भी क्षयोपशम की मन्दता के कारण विषय को कभी ग्रहण करनेवाले और कभी न ग्रहण करनेवाले उक्त चारों ज्ञान अध्रुवग्राही अवग्रह आदि कहलाते है ।
प्रश्न-उक्त बारह भेदो मे से कितने भेद विषय की विविधता और कितने भेद क्षयोपशम की पटुता-मन्दतारूप विविधता के आधार पर किये गये है ?
उत्तर-बहु, अल्प, बहुविध और अल्पविध ये चार भेद विषय की विविधता पर अवलम्बित है, शेष आठ भेद क्षयोपशम की विविधता पर ।
प्रश्न-अब तक कुल कितने भेद हुए ? उत्तर-दो सौ अट्ठासी भेद हुए। प्रश्न-कैसे ?
उत्तर-पाँच इन्द्रियाँ और मन इन छ: भेदो के साथ अवग्रह आदि के चार-चार भेदों का गुणा करने से चौबीस और बहु, अल्प आदि उक्त बारह प्रकारों के साथ चौबीस का गुणा करने से दो सौ अट्ठासी भेद हुए । १६ ।
निकालनेवाले है, अनुक्ता वग्रह है। इसके विपरीत उक्त/वग्रह है । देखे-इसी सूत्र पर राजवार्तिक टीका।
श्वेताम्बर ग्रन्थ नन्दीसूत्र मे 'असदिग्ध' ऐसा एकमात्र पाठ है । उसकी टीका मे उसका अर्थ ऊपर लिखे अनुसार ही है (देखें पृ० १८३)। परन्तु तत्त्वार्थभाष्य की वृत्ति में अनुक्त पाठ भी है । उसका अर्थ राजवार्तिक के अनुसार है। किन्तु वृत्तिकार ने लिखा है कि अनुक्त पाठ रखने से इसका अर्थ केवल शब्द-विषयक अवग्रह आदि पर ही लाग होता है, स्पर्श-विषयक अवग्रह आदि पर नही। इस अपूर्णता के कारण अन्य आचार्यों ने 'असंदिग्ध' पाठ रखा है। देखें-तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, पृ० ५८, मनसुख भगुभाई, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित ।
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