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अवग्रह आदि के भेद
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पुस्तक को जाननेवाले अल्पग्राही अवग्रह, अल्पग्राहिणी ईहा, अल्पनाही अवाय और अल्पग्राहिणी धारणा कहलाते है ।
बहुविध अर्थात् अनेक प्रकार से और एकविध अर्थात् एक प्रकार से । जैसे आकार-प्रकार, रूप-रंग या मोटाई आदि मे विविधता रखनेवाली पुस्तकों को जाननेवाले उक्त चारों ज्ञान क्रम से बहुविधग्राही अवग्रह, बहुविधग्राहिणी ईहा, बहुविधग्राही अवाय तथा बहुविधग्राहिणी धारणा; और आकार-प्रकार, रूप-रंग तथा मोटाई आदि में एक ही प्रकार की पुस्तकों को जाननेवाले वे ज्ञान एकविधग्राही अवग्रह, एकविधग्राहिणी ईहा आदि कहलाते है । बहु तथा अल्प का अभिप्राय व्यक्ति की संख्या से है और बहुविध तथा एकविध का अभिप्राय प्रकार, किस्म या जाति की संख्या से है । यही दोनों में अन्तर है ।
शीघ्र जाननेवाले चारों मतिज्ञान क्षिप्रग्राही अवग्रह आदि और विलंब से जाननेवाले अक्षिप्रग्राही अवग्रह आदि कहलाते है । देखा जाता है कि इन्द्रिय, विषय आदि सब बाह्य सामग्री तुल्य होने पर भी मात्र क्षयोपशम की पटुता के कारण एक मनुष्य उस विषय का ज्ञान जल्दी प्राप्त कर लेता है और क्षयोपशम की मन्दता के कारण दूसरा मनुष्य देर से प्राप्त कर पाता है ।
अनिश्रित' अर्थात् लिंग-अप्रमित ( हेतु द्वारा असिद्ध ) और निश्रित अर्थात् लिंग-प्रमित वस्तु । जैसे पूर्व में अनुभूत शीत, कोमल और स्निग्ध स्पर्शरूप लिंग से वर्तमान में जूई के फूलों को जाननेवाले उक्त चारों ज्ञान क्रम से निश्रितग्राही (सलिंगग्राही ) अवग्रह आदि और उक्त लिंग के बिना ही उन फूलों को जाननेवाले अनिश्रितग्राही ( अलिंगग्राही ) अवग्रह आदि कहलाते है । संदिग्ध अर्थात् अनिश्चित । जैसे यह चन्दन
असंदिग्ध अर्थात् निश्चित और
१. अनिश्रित और निश्रित शब्द का यही अर्थ नन्दीसूत्र की टीका मे भी है; पर इसके सिवाय दूसरा अर्थ भी उस टीका मे श्री मलयगिरि ने बतलाया है; जैसे परधर्मों से मिश्रित ग्रहण निश्रितावग्रह और परधर्मी से अमिश्रित ग्रहण अनिश्रितावग्रह है । देखें - पृ० १८३, आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित ।
दिगम्बर ग्रन्थो मे ‘अनिःसृत' पाठ है। तदनुसार उनमे अर्थ किया गया है कि सम्पूर्णतया आविर्भूत नहीं ऐसे पुद्गलो का ग्रहण 'अनिःसृतावग्रह' और सम्पूर्णतया आविर्भूत पुद्गलो का ग्रहण ‘निःसृतावग्रह' है । देखें – इसी सूत्र पर राजवार्तिक टीका ।
२. इसके स्थान पर दिगम्बर ग्रन्थो मे 'अनुक्त' पाठ है । तदनुसार उनमे अर्थ किया गया है कि एक हो वर्ण निकलने पर पूर्ण अनुच्चारित शब्द को अभिप्रायमात्र से जान लेना कि आप अमुक शब्द बोलनेवाले है, अनुक्तावग्रह है । अथवा, स्वर का संचारण करने से पहले ही वीणा आदि वादित्र की ध्वनिमात्र से जान लेना कि आप अमुक स्वर
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