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मतिज्ञान के एकार्थक शब्द ये है-जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही केवल आत्मा को योग्यता से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है, जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है वह परोक्ष है।
उक्त पाँच मे से पहले दो अर्थात् मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष-प्रमाण कहलाते है, क्योकि ये दोनों इन्द्रिय तथा मन की मदद से उत्पन्न होते है ।
अवधि, मन.पर्याय और केवल ये तीनों ज्ञान प्रत्यक्ष है, क्योकि ये इन्द्रिय तथा मन की मदद के बिना केवल आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होते है ।।
न्यायशास्त्र मे प्रत्यक्ष और परोक्ष का लक्षण भिन्न प्रकार से किया गया है। उसमे इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष और लिङ्ग ( हेतु ) तथा शब्दादिजन्य ज्ञान को परोक्ष कहा गया है; परन्तु वह लक्षण यहाँ स्वीकृत नही है। यहाँ तो आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से और इन्द्रिय तथा मन की अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान परोक्ष रूप से इष्ट है। मति और श्रुत दोनो ज्ञान इन्द्रिय और मन की अपेक्षा रखनेवाले होने से परोक्ष समझने चाहिए और अवधि आदि तीनों ज्ञान इन्द्रिय तथा मन की मदद के बिना आत्मिक योग्यता से उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष । इन्द्रिय तथा मनोजन्य मतिज्ञान को कही-कही पूर्वोक्त न्यायशास्त्र के लक्षणानुसार लौकिक दृष्टि की अपेक्षा से प्रत्यक्ष कहा गया है।' १०-१२ ।
मतिज्ञान के एकार्थक शब्द मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् । १३ । मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध-ये शब्द पर्यायभूत (एकार्थवाचक) है।
प्रश्न-किस ज्ञान को मति कहते है ? उत्तर-जो ज्ञान वर्तमान-विषयक हो उसे मति कहते है। प्रश्न-क्या स्मृति, संज्ञा और चिन्ता भी वर्तमान-विषयक ही है ?
उत्तर-नहीं। पहले अनुभव की हुई वस्तु का स्मरण स्मृति है, इसलिए वह अतीत-विषयक है । पहले अनुभव की हुई और वर्तमान मे अनुभव की जाने वाली वस्तु की एकता का तालमेल संज्ञा या प्रत्यभिज्ञान है, इसलिए वह अतीत
१. प्रमाणमीमांसा आदि तर्कग्रन्थो मे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष रूप से इन्द्रिय-मनोजन्य अवग्रह आदि ज्ञान का वर्णन है । विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखे-न्यायावतार, गुजराती अनुवाद की प्रस्तावना मे जैन प्रमाणमीमांसा-पद्धति का विकासक्रम ।
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