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१२ तत्त्वार्थसूत्र
[ १. १०-१२ है और थोडा अस्पष्ट व भ्रमात्मक ज्ञान भी सम्यक्त्व के प्रकट होते ही सम्यग्ज्ञान हो जाता है ?
उत्तर-यह अध्यात्म-शास्त्र है। इसलिए सम्यग्ज्ञान और असम्यग्ज्ञान का विवेक आध्यात्मिक दृष्टि से किया जाता है, न्याय या प्रमाणशास्त्र की तरह विषय की दृष्टि से नही। न्यायशास्त्र मे जिस ज्ञान का विषय यथार्थ हो वही सम्यग्ज्ञानप्रमाण और जिसका विषय अयथार्थ हो वह असम्यग्ज्ञान-प्रमाणाभास कहलाता है। परन्तु इस आध्यात्मिक शास्त्र मे न्यायशास्त्रसम्मत सम्यग्ज्ञान-असम्यग्ज्ञान का वह विभाजन मान्य होने पर भी गौण है । यहाँ यही विभाजन मुख्य है कि जिस ज्ञान से आध्यात्मिक उत्क्रान्ति (विकास) हो वही सम्यग्ज्ञान है और जिससे संसार-वृद्धि या आध्यात्मिक पतन हो वही असम्यग्ज्ञान है । सम्भव है कि सामग्री की कमी के कारण सम्यक्त्वी जीव को कभी किसी विषय मे संशय भी हो, भ्रम भी हो, एवं ज्ञान भी अस्पष्ट हो; पर सत्यगवेषक और कदाग्रहरहित होने के कारण वह अपने से महान् , प्रामाणिक, विशेषदर्शी व्यक्ति के आश्रय से अपनी कमी को सुधार लेने के लिए सदैव उत्सुक रहता है, सुधार भी लेता है और अपने ज्ञान का उपयोग वासनापोषण में न कर मुख्यतया आध्यात्मिक विकास में ही करता है । सम्यक्त्वशून्य जीव का स्वभाव इससे विपरीत होता है । सामग्री की पूर्णता के कारण उसे निश्चयात्मक, अधिक और स्पष्ट ज्ञान होता है तथापि वह कदाग्रही प्रकृति के कारण घमंडी होकर किसी विशेषदर्शी के विचारो को भी तुच्छ समझता है और अन्त मे अपने ज्ञान का उपयोग आत्मिक प्रगति में न कर सासारिक महत्त्वाकाक्षा मे ही करता है । ९ ।
प्रमाण-चर्चा तत् प्रमाणे । १०। आद्ये परोक्षम् । ११ ।
प्रत्यक्षमन्यत् । १२ । वह अर्थात् पांचों प्रकार का ज्ञान दो प्रमाणरूप है। प्रथम दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। शेष सब ( तीन ) ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण है।
प्रमाण-विभाग–मति, श्रुत आदि ज्ञान के पाँचों प्रकार प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणों में विभक्त है ।
प्रमाण-लक्षण-प्रमाण का सामान्य लक्षण पहले बताया जा चुका है कि जो ज्ञान वस्तु को अनेकरूप से जानता है वह प्रमाण है। उसके विशेष लक्षण
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