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तत्त्वार्थ सूत्र
[ १. ६-८
निवास क्षेत्र भी लोक का असंख्यातवां भाग ही है । फिर भी इतना अन्तर अवश्य होगा कि एक सम्यक्त्वी जीव के क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त जीवों का क्षेत्र परिमाण मे बडा होगा, क्योंकि लोक का असख्यातवां भाग भी तरतमभाव से असंख्यात प्रकार का होता है । १०. स्पर्शन -- निवासस्थानरूप आकाश के चारों ओर के प्रदेशों को छूना स्पर्शन है । क्षेत्र मे केवल आधारभूत आकाश ही आता है । स्पर्शन मे आधार क्षेत्र के चारों तरफ के आधेय द्वारा स्पर्शित आकाश-प्रदेश भी आते है । यही क्षेत्र और स्पर्शन में अन्तर है । सम्यग्दर्शन का स्पर्शन-क्षेत्र भी लोक का असंख्यातवाँ भाग ही होता है, परन्तु यह भाग उसके क्षेत्र की अपेक्षा कुछ बड़ा होता है, क्योंकि इसमें क्षेत्रभूत आकाशपर्यन्त प्रदेश भी सम्मिलित है । ११. काल ( समय ) - एक जीव की अपेक्षा से सम्यग्दर्शन का काल सादि - सान्त या सादिअनन्त होता है, पर सब जीवों की अपेक्षा से अनादि-अनन्त समझना चाहिए, क्योंकि भूतकाल का कोई भी भाग ऐसा नही है कि जब सम्यक्त्वी बिलकुल न रहा हो । भविष्यत्काल के विषय में भी यही बात है अर्थात् अनादिकाल से सम्यग्दर्शन का आविर्भाव - क्रम जारी है जो अनन्तकाल तक चलता रहेगा ! १२ अन्तर ( विरहकाल ) - एक जीव को लेकर सम्यग्दर्शन का विरहकाल जघन्य अन्तर्मुहूर्त' और उत्कृष्ट अपार्धपुद्गलपरावर्त - जितना समझना चाहिए, क्योंकि एक बार सम्यक्त्व का वमन ( नाश ) हो जाने पर पुनः वह जल्दी से जल्दी अन्तर्मुहूर्त मे प्राप्त हो सकता है । ऐसा न हुआ तो भी अन्त में अपार्धपुद्गलपरावर्त के बाद अवश्य ही प्राप्त हो जाता है । परन्तु नाना जीवों की अपेक्षा से तो सम्यग्दर्शन का विरहकाल बिलकुल नही होता, क्योंकि नाना जीवो मे तो किसी-न-किसी को सम्यग्दर्शन होता ही रहता है । १३. भाव ( अवस्थाविशेष ) - - औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीन अवस्थाओं मे सम्यक्त्व पाया जाता है । भाव सम्यक्त्व के आवरणभूत दर्शनमोहनीय कर्म के
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१. आवली से अधिक और मुहूर्त से न्यून काल अन्तर्मुहूर्त है । आव समय अधिक काल जघन्य अन्तर्मुहूर्त, मुहूर्त मे एक समय कम उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त और वीच का सब काल मध्यम अन्तर्मुहूर्त है । यह दिगम्बर परम्परा है । ( देखे - तिलोयपण्णत्त, ४.२८८; गो० जीवकांड, गा० ५७३ - ५१५ । ) श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार नौ समय का जघन्य अन्तर्मुहूर्त है। बाकी सब समान है ।
२. जीव पुद्गलों को ग्रहण करके उन्हें शरीर, भाषा, मन और श्वासोच्छ्वास के रूप मे परिणत करता है । किसी जीव को जगत् में विद्यमान समग्र पुद्गल - परमाणुओं को आहारक शरीर के सिवाय शेष सब शरीरों के रूप मे तथा भाषा, मन और श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत करके उन्हें छोड देने मे जितना काल लगता है उसे पुद्गलपरावर्त कहते हैं । इसमे कुछ ही काल कम हो तो उसे अपार्थपुद्गलपरावर्त कहते हैं ।
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