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१. ६–८ ]
तत्त्वों को जानने के उपाय
आध्यात्मिक तत्त्व को सुनकर तत्सम्बन्धी विविध प्रश्नों के द्वारा अपना ज्ञान बढाता है । यही आशय प्रस्तुत दो सूत्रों में प्रकट किया गया है । निर्देश आदि सूत्रोक्त चौदह प्रश्नों को लेकर सम्यग्दर्शन पर संक्षेप में विचार किया जाता है ।
है, तथापि जहाँ
१. निर्देश ( तत्त्वरुचि ) – यह सम्यग्दर्शन का स्वरूप है । २ स्वामित्व ( अधिकारित्व ) - सम्यग्दर्शन का अधिकारी जीव ही है, अजीव नही, क्योकि वह जीव का ही गुण या पर्याय है । ३. साधन कारण ) - दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम, क्षयोपशम और क्षय ये तीन सम्यग्दर्शन के अन्तरङ्ग कारण है । बहिरङ्ग कारण शास्त्रज्ञान, जातिस्मरण, प्रतिमादर्शन, सत्संग आदि अनेक है । ४. अधिकरण ( आधार ) -- सम्यग्दर्शन का आधार जीव ही है. क्योंकि वह उस का परिणाम होने के कारण उसो मे रहता है । सम्यग्दर्शन गुण है, इसलिए यद्यपि उसका स्वामी और अधिकरण अलग-अलग नही जीव आदि द्रव्य के स्वामी और अधिकरण का विचार करना हो वहाँ उन दोनों में भिन्नता भी पाई जाती है । जैसे, व्यवहारदृष्टि से देखने पर एक जीव का स्वामी कोई दूसरा जीव होगा, पर अधिकरण उसका कोई स्थान या शरीर ही कहा जायेगा । ५. स्थिति ( कालमर्यादा ) - सम्यग्दर्शन की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति सादि-अनन्त है । तीनो प्रकार के सम्यक्त्व अमुक समय मे उत्पन्न होते है, इसलिए वे सादि अर्थात् पूर्वावधिवाले है । परन्तु उत्पन्न होकर भी औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कायम नही रहते, इसलिए वे दो तो सान्त अर्थात् उत्तर अवधिवाले भी है । पर क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होने के बाद नष्ट नही होता इसलिए वह अनन्त है । इसी अपेक्षा से सामान्यतया सम्यग्दर्शन को सादि- सान्त और सादि-अनन्त समझना चाहिए । ६ विधान ( प्रकार ) - सम्यक्त्व के औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ऐसे तीन प्रकार है ।
७. सत् ( सत्ता ) - यद्यपि सम्यक्त्व गुण सत्तारूप से सभी जीवो मे विद्यमान है, पर उसका आविर्भाव केवल भव्य जीवों में होता है, अभव्यो मे
८. संख्या ( गिनती ) – सम्यक्त्व की गिनती उसे प्राप्त करने वालों की संख्या पर निर्भर है । आज तक अनन्त जीवों ने सम्यक्त्व -लाभ किया है और आगे अनन्त जीव उसको प्राप्त करेंगे, इस दृष्टि से सम्यग्दर्शन संख्या मे अनन्त है । ९. क्षेत्र ( लोकाकाश ) -- सम्यग्दर्शन का क्षेत्र सम्पूर्ण लोकाकाश नहीं है किन्तु उसका असंख्यातवाँ भाग है । चाहे सम्यग्दर्शनी एक जीव को लेकर या अनन्त जीवों को लेकर विचार किया जाय तो भी सामान्य रूप से सम्यग्दर्शन का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग समझना चाहिए, क्योंकि सभी सम्यग्दर्शनवाले जीवों का
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