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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. १ साधनों का स्वरूप-जिस गुण अर्थात् शक्ति के विकास से तत्त्व अर्थात् सत्य की प्रतीति हो, अथवा जिससे हेय (छोड़ने योग्य ) एव उपादेय ( ग्रहण करने योग्य ) तत्त्व के यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो वह सम्यग्दर्शन है। नय और प्रमाण' से होनेवाला जीव आदि तत्त्वों का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है । सम्यग्ज्ञानपूर्वक काषायिक भाव अर्थात् रागद्वेष और योग की निवृत्ति से होनेवाला स्वरूप रमण सम्यक्चारित्र है।
साधनों का साहचर्य-जब उक्त तीनो साधन परिपूर्ण रूप मे प्राप्त होते है तभी सम्पूर्ण मोक्ष सम्भव है, अन्यथा नही । एक भी साधन के अपूर्ण रहने पर परिपूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान परिपूर्ण रूप में प्राप्त हो जाने पर भी सम्यक्चारित्र की अपूर्णता के कारण तेरहवें गुणस्थान में पूर्ण मोक्ष अर्थात् अशरीरसिद्धि या विदेहमुक्ति नही होती और चौदहवें गुणस्थान में शैलेशी-अवस्थारूप पूर्ण चारित्र के प्राप्त होते ही तीनो साधनो की परिपूर्णता से पूर्ण मोक्ष हो जाता है ।
साहचर्य-नियम-उक्त तीनों साधनो मे से पहले दो अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान अवश्य सहचारी होते है।
१. जो ज्ञान शब्द मे उतारा जाता है अर्थात् जिसमे उद्देश्य और विधेय रूप से वस्तु भासित होती है वह ज्ञान 'नय' है और जिसमे उद्देश्य-विधेय के विभाग के बिना ही अर्थात् अविभक्त वस्तु का सम्पूर्ण या असम्पूर्ण यथार्थ भान हो वह ज्ञान 'प्रमाण' है । विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखे-अध्याय १, सूत्र ६; न्यायावतार, इलोक २६-३० का गुजराती अनुवाद ।
२. योग अर्थात् मानसिक, वाचिक और कायिक क्रिया ।
३. हिंसादि दोषो का त्याग और अहिंसादि महाव्रतों का अनुष्ठान सम्यकचारित्र कहलाता है क्योकि उसके द्वारा रागद्वेष की निवृत्ति की जाती है एवं इससे दोषो का त्याग और महाव्रतो का पालन स्वतः सिद्ध होता है।
४. यद्यपि तेरहवें गुणस्थान मे वीतरागभावरूप चारित्र तो पूर्ण ही है तथापि यहाँ वीतरागता और अयोगता-इन दोनों को पूर्ण चारित्र मानकर ही अपूर्णता कही गई है। ऐसा पूर्ण चारित्र चौदहवे गुणस्थान मे प्राप्त होता है और तुरन्त ही अशरीरसिद्धि होती है।
५. आत्मा की एक ऐसी अवस्था जिसमे ध्यान की पराकाष्ठा के कारण मेरुसदृश निप्रकम्पता व निश्चलता आती है, शैलेशी अवस्था है। विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखेंहिन्दी दूसरा कर्मग्रन्थ, पृष्ठ ३० ।
६. एक ऐसा भी पक्ष है जो दर्शन और ज्ञान के अवश्यम्भावी साहचर्य को न मानकर वैकल्पिक साहचर्य को मानता है। उसके मतानुसार कभी दर्शनकाल मे ज्ञान नही भी
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