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तत्त्वार्थ सूत्र
[ १. २-३ कि एक इच्छा पूरी होते-न-होते दूसरी सैकडो इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती है । उन सब इच्छाओ की तृप्ति सम्भव नही, अगर हो भी तो फिर तब तक हजारो इच्छाएँ और पैदा हो जाती है जिनका पूर्ण होना सम्भव नहीं । अतएव संसार में इच्छापूर्तिजन्य सुख के पलडे से अपूर्ण इच्छाजन्य दुख का पलड़ा भारी ही रहता है । इसीलिए उसमे सुखाभास कहा गया है । मोक्ष की स्थिति ऐसी है कि उसमें इच्छाओ का ही अभाव हो जाता है और स्वाभाविक संतोष प्रकट होता है । इसलिए उसमे सतोषजन्य सुख ही सुख है । यही सच्चा सुख है । १ ।
सम्यग्दर्शन का लक्षण
तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । २ ।
यथार्थ रूप से पदार्थो का निश्चय करने की रुचि सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के हेतु तन्निसर्गादधिगमाद्वा । ३ ।
वह ( सम्यग्दर्शन ) निसर्ग अर्थात् परिणाम मात्र से अथवा अधिगम अर्थात् उपदेशादि वाह्य निमित्त से उत्पन्न होता है ।
जगत् के पदार्थो को यथार्थ रूप से जानने की रुचि सासारिक और आध्यास्मिक — दोनों प्रकार की महत्त्वाकाक्षा से होती है । धन, प्रतिष्ठा आदि सासारिक वासना के कारण जो तत्त्व - जिज्ञासा होती है वह सम्यग्दर्शन नही है, क्योंकि उसका परिणाम मोक्ष नही, संसार होता है । परन्तु तत्त्वनिश्चय की जो रुचि मात्र आत्मिक तृप्ति के लिए, आध्यात्मिक विकास के लिए होती है वही सम्यग्दर्शन है ।
निश्चय और व्यवहार सम्यक्त्व - - आध्यात्मिक विकास से उत्पन्न ज्ञेयमात्र को तात्त्विक रूप मे जानने की, हेय को त्यागने की और उपादेय को ग्रहण करने की रुचि के रूप में एक प्रकार का जो आत्मिक परिणाम है वही निश्चय सम्यक्त्व है । उस रुचि से होनेवाली धर्मतत्त्वनिष्ठा व्यवहार सम्यक्त्व है |
सम्यक्त्व के लिङ्ग - सम्यग्दर्शन की पहचान करानेवाले लिग पाँच हैप्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य । १. तत्त्वो के असत् पक्षपात से होनेवाले कदाग्रह आदि दोषो का उपशम प्रशम है । २. सासारिक बन्धनों का भय सवेग है | ३. विषयों में आसक्ति का कम होना निर्वेद है । ४. दु.खी प्राणियों का दुःख दूर करने की इच्छा अनुकम्पा है । ५. आत्मा आदि परोक्ष किन्तु युक्तिप्रमाण से सिद्ध पदार्थो का स्वीकार आस्तिक्य है ।
हेतुभेद - सम्यग्दर्शन के योग्य आध्यात्मिक उत्क्रान्ति होते ही सम्यग्दर्शन का
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