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मोक्ष और उसके साधन
जैसे सूर्य की उष्णता और प्रकाश एक-दूसरे के बिना नही रह सकते, वैसे ही. सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान एक-दूसरे के बिना नही रहते, पर सम्यकचारित्र के. साथ उनका साहचर्य अवश्यम्भावी नहीं है, क्योंकि सम्यकचारित्र के बिना भी कुछ काल तक सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रहते है। फिर भी उत्क्रान्ति (विकास) के क्रमानुसार सम्यक्चारित्र का यह नियम है कि जब वह प्राप्त होता है तब उसके पूर्ववर्ती सम्यग्दर्शन आदि दो साधन अवश्य होते है ।
प्रश्न-यदि आत्मिक गुणों का विकास ही मोक्ष है और सम्यग्दर्शन आदि उसके साधन भी आत्मा के विशिष्ट गुणो का विकास ही है, तो फिर मोक्ष और उसके साधन मे क्या अन्तर हुआ ?
उत्तर-कुछ नही।
प्रश्न-यदि अन्तर नही है तो मोक्ष साध्य और सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय उसके साधन--यह साध्य-साधनभाव कैसे ? क्योकि साध्य-साधनसम्बन्ध भिन्न वस्तुओं मे देखा जाता है।
उत्तर-साधक-अवस्था की अपेक्षा से मोक्ष और रत्नत्रय का साध्य-साधनभाव कहा गया है, सिद्ध-अवस्था की अपेक्षा से नही, क्योंकि साधक का साध्य परिपूर्ण दर्शनादि रत्नत्रयरूप मोक्ष होता है और उसकी प्राप्ति रत्नत्रय के क्रमिक विकास से ही होतो है । यह शास्त्र साधक के लिए है, सिद्ध के लिए नही । अतः इसमें साधक के लिए उपयोगी साध्य-साधन के भेद का ही कथन है।
प्रश्न-संसार मे तो धन-कलत्र-पुत्रादि साधनों से सुख-प्राप्ति प्रत्यक्ष देखी जाती है, फिर उसे छोडकर मोक्ष के परोक्ष सुख का उपदेश क्यों ?
उत्तर-मोक्ष का उपदेश इसलिए है कि उसमे सच्चा सुख मिलता है। संसार में जो सुख मिलता है वह सच्चा सुख नही, सुखाभास है ।
प्रश्न-मोक्ष में सच्चा सुख और संसार में सुखाभास कैसे है ? उत्तर-सांसारिक सुख इच्छा की पूर्ति से होता है । इच्छा का स्वभाव है
होता । तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व प्राप्त होने पर भी देव-नारक-तिर्यञ्च को तथा कुछ मनुष्यों को विशिष्ट श्रुतज्ञान अर्थात् आचाराङ्गादि अङ्गप्रविष्ट-विषयक ज्ञान नहीं होता। इस मत के अनुसार दर्शन के समय ज्ञान न पाने का मतलब विशिष्ट श्रुतज्ञान न पाने से है। परन्तु दर्शन और ज्ञान को अवश्य सहचारो माननेवाले पक्ष का आशय यह है कि दर्शन-प्राप्ति के पहले जीव मे जो मति आदि अज्ञान होता है वहीं सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति या मिथ्यादर्शन की निवृत्ति से सम्यक् रूप में परिणत हो जाता है और वह मति आदि लान कहलाता है। इस मत के अनुसार जो और जितना विशेष बोध सम्यक्त्व-प्राप्ति-काल मे हो वही सम्यग्ज्ञान है, विशिष्ट श्रुतमात्र नही ।
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