________________
:१ः
ज्ञान
संसार में अनन्त प्राणी है और वे सभी सुख के अभिलाषी है। यद्यपि सब की सुख की कल्पना एक सी नही है तथापि विकास की न्यूनाधिकता के अनुसार संक्षेप में प्राणियों के तथा उनके सुख के दो वर्ग किये जा सकते है । पहले वर्ग मे अल्प विकासवाले ऐसे प्राणी आते है जिनके सुख की कल्पना बाह्य साधनों तक ही सीमित है। दूसरे वर्ग में अधिक विकासवाले ऐसे प्राणी आते है जो बाह्य अर्थात् भौतिक साधनों की प्राप्ति मे सुख न मानकर आध्यात्मिक गुणों की प्राप्ति में सुख मानते है। दोनों वर्गों के माने हुए सुख में यही अन्तर है कि पहला सुख पराधीन है और दूसरा स्वाधीन । पराधीन सुख को काम और स्वाधीन सुख को मोक्ष कहते है । काम और मोक्ष-दो ही पुरुषार्थ है, क्योंकि उनके अतिरिक्त और कोई वस्तु प्राणिवर्ग के लिए मुख्य साध्य नहीं है । पुरुषार्थो मे अर्थ और धर्म की गणना मुख्य साध्यरूप से नही किन्तु काम और मोक्ष के साधन के रूप में है। अर्थ काम का और धर्म मोक्ष का प्रधान साधन है। प्रस्तुत शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय मोक्ष है। इसलिए उसी के साधनभूत धर्म को तीन विभागों में विभक्त करके शास्त्रकार प्रथम सूत्र में उनका निर्देश करते है
सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।१। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र-ये तीनों मिलकर मोक्ष के साधन हैं।
इस सूत्र मे मोक्ष के साधनों का मात्र नाम-निर्देश है। उनके स्वरूप और भेदों का वर्णन आगे विस्तार से किया जानेवाला है, फिर भी यहाँ संक्षेप में स्वरूपविषयक संकेत किया जा रहा है ।
मोक्ष का स्वरूप-बन्ध और बन्ध के कारणों के अभाव से होनेवाला परिपूर्ण आत्मिक विकास मोक्ष है अर्थात् ज्ञान और वीतरागभाव की पराकाष्ठा ही मोक्ष है।
-
१
-
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org