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१. ४]
तात्त्विक अर्थो का नाम-निर्देश आविर्भाव होता है । पर किसी आत्मा को उसके आविर्भाव में बाह्य निमित्त की अपेक्षा रहती है और किसी को नही। एक व्यक्ति शिक्षक आदि की मदद से शिल्प आदि कोई कला सीख लेता है और दूसरा बिना किसी की मदद के अपने-आप सीख लेता है। आन्तरिक कारण की समानता होने पर भी बाह्य निमित्त की अपेक्षा और अनपेक्षा को लेकर प्रस्तुत सूत्र में सभ्यग्दर्शन के निसर्ग-सम्यग्दर्शन और अधिगम-सम्यग्दर्शन ये दो भेद किये गये है। बाह्य निमित्त भी अनेक प्रकार के होते है। कोई प्रतिमा आदि धार्मिक वस्तु के अवलोकन से सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, कोई गुरु का उपदेश सुनकर, कोई शास्त्र पढ-सुनकर और कोई सत्संग के द्वारा।
उत्पत्ति-क्रम --अनादिकालीन संसार-प्रवाह में तरह-तरह के दु.खों का अनुभव करते-करते योग्य आत्मा मे कभी अपूर्व परिणामशुद्धि हो जाती है । इस परिणामशुद्धि को अपूर्वकरण कहते है । अपूर्वकरण से रागद्वेष की वह तीव्रता मिट जाती है जो तात्त्विक पक्षपात ( सत्य का आग्रह ) मे बाधक है। रागद्वेष की तीव्रता मिटते ही आत्मा सत्य के लिए जागरूक बन जाती है। यह आध्यात्मिक जागरण ही सम्यक्त्व है । २-३ ।
तात्त्विक अर्थो का नाम-निर्देश जीवाजीवात्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । ४। जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये तत्त्व हैं ।
बहुत-से ग्रन्थों में पुण्य और पाप को मिलाकर नौ तत्त्व कहे गये है, परन्तु यहाँ पुण्य और पाप दोनो का आस्रव या बन्धतत्त्व मे समावेश करके सात तत्त्व ही कहे गये है । अन्तर्भाव को इस प्रकार समझना चाहिए-पुण्य-पाप दोनों द्रव्य और भाव रूप से दो-दो प्रकार के है । शुभ कर्मपुद्गल द्रव्यपुण्य और अशुभ कर्मपुद्गल द्रव्यपाप है। इसलिए द्रव्यरूप पुण्य तथा पाप बन्धतत्त्व मे अन्तर्भूत है, क्योंकि आत्मसम्बद्ध कर्मपुद्गल या आत्मा और कर्मपुद्गल का सम्बन्ध-विशेष ही द्रव्य-बन्ध तत्त्व है । द्रव्य-पुण्य का कारण शुभ अध्यवसाय जो भावपुण्य है और द्रव्यपाप का कारण अशुभ अध्यवसाय जो भावपाप है-दोनों ही बन्धतत्त्व में
१. उत्पत्ति-क्रम की स्पष्टता के लिए देखिए-हिन्दो दूसरा कर्मग्रन्थ, पृ० ७ तथा चौथा कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना, पृ० १३ ।
२. बौद्धदर्शन मे जो दु.ख, समुदय, निरोध और मार्ग ये चार आर्यसत्य है, सांख्य तथा योगदर्शन मे जो हेय, हेयहेतु, हान और हानोपाय यह चतुव्यूह है, जिसे न्यायदर्शन में अर्थपद कहा है, उनके स्थान मे आस्रव से लेकर मोक्ष तक के पाँच तत्त्व जैनदर्शन मे प्रसिद्ध है।
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