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तत्त्वार्थसूत्र
अन्तर्भूत है, क्योकि वन्ध का कारणभूत कापायिक अध्यवसाय ( परिणाम ) हो भावबन्ध है।
प्रश्न-आस्रव से लेकर मोक्ष तक के पांच तत्त्व न तो जीव-अजीव की तरह स्वतंत्र है और न अनादि-अनन्त । वे तो यथासम्भव जीव या अजीव की अवस्थाविशेष ही है । अत. उन्हे जीव-अजीव के साथ तत्त्वरूप से क्यों गिना गया ?
उत्तर-वस्तुस्थिति यही है अर्थात् यहाँ तत्त्व शब्द का अर्थ अनादि-अनन्त और स्वतंत्र भाव नहीं है किन्तु मोक्ष-प्राप्ति में उपयोगी होनेवाला ज्ञेय भाव है । प्रस्तुत शास्त्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय मोक्ष होने से मोक्ष के जिज्ञासुओं के लिए जिन वस्तुओं का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है वे ही वस्तुएँ यहाँ तत्त्वरूप मे वर्णित है। मोक्ष तो मुख्य साध्य ही है, इसलिए उसको तथा उसके कारण को जाने बिना मोक्षमार्ग में मुमुक्षु की प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती। इसी तरह यदि मुमुक्षु मोक्ष के विरोधी तत्त्व का और उसके कारण का स्वरूप न जाने तो भी वह अपने पथ मे अस्खलित प्रवृत्ति नही कर सकता। मुमुक्षु को सबसे पहले यह जान लेना जरूरी है कि अगर मैं मोक्ष का अधिकारी हूँ लो मुझमें पाया जानेवाला सामान्य स्वरूप किस-किसमे है और किसमे नही है। इसी ज्ञान की पूर्ति के लिए सात तत्त्वों का कथन है। जीव-तत्त्व के कथन का अर्थ है मोक्ष का अधिकारी । अजीव-तत्त्व से यह सूचित किया गया कि जगत् मे एक ऐसा भी तत्त्व है जो जड होने से मोक्षमार्ग के उपदेश का अधिकारी नही है । बन्ध-तत्त्व से मोक्ष का विरोधी भाव और आस्रव-तत्त्व से उस विरोधी भाव का कारण निर्दिष्ट किया गया। सवर-तत्त्व से मोक्ष का कारण और निर्जरा-तत्त्व से मोक्ष का क्रम सूचित किया गया है । ४ ।
निक्षेपो का नामनिर्देश
नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः । ५ । नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप से उनका अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि और जीव आदि का न्यास अर्थात् निक्षेप या विभाग होता है।
समस्त व्यवहार या ज्ञान के लेन-देन का मुख्य साधन भाषा है । भाषा शब्दों से बनती है । एक ही शब्द प्रयोजन या प्रसंग के अनुसार अनेक अर्थो मे प्रयुक्त होता है । प्रत्येक शब्द के कम से कम चार अर्थ मिलते है । वे ही चार अर्थ उस शब्द के अर्थ-सामान्य के चार विभाग है । ये विभाग ही निक्षेप या न्यास कहलाते हैं । इनको जान लेने से वक्ता का तात्पर्य समझने मे सरलता होती है । इसीलिए प्रस्तुत सूत्र मे चार अर्थनिक्षेप बतलाये गये है जिससे यह पृथक्करण स्पष्ट रूप
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