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संदर्भ की दृष्टि से अर्थ की स्पष्टता अधिक है । प्रत्येक वर्ग के अत में दी हुई संख्या इस प्रकार के मूल्यांकन की सूचक है । कोष्ठक के बाहर की संख्या श्वेताम्बर सूत्रों, छोटे कोष्टक ( ) के भीतर की संख्या दिगम्बर सूत्रों तथा बड़े कोष्ठक [ ] के भीतर की संख्या अनिर्णीत सूत्रों का निर्देश करती है । उदाहरणार्थ ३, ( २ ) [ १ ] का तात्पर्य यह है कि इस वर्ग के कुल छ' सूत्रों में से श्वेताम्बर सम्मत तीन सूत्र और दिगम्बर सम्मत दो सूत्र अर्थ की दृष्टि से अधिक स्पष्ट हैं तथा एक सूत्र के विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन है । दिगम्बर सूत्रों को सर्वत्र श्वेताम्बर सूत्रों के अनन्तर रखा गया है तथा उनके सूत्रांक छोटे कोष्ठक में दिए गए हैं। सभी स्रोतों से जो भी सामग्री संकलित की गई है वह परिपूर्ण तो नहीं है तथापि किसी यथेष्ट निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए अपर्याप्त भी नहीं है । इस विवेचन में निम्नोक्त ग्रंथों का उपयोग किया गया है— श्री केशवलाल प्रेमचन्द मोदी द्वारा संपादित तत्त्वार्थाधिगमसूत्र ( सभाष्य ), कलकत्ता, १९०३ और पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री द्वारा संपादित सर्वार्थसिद्धि, बनारस, १९७१ । इस निबन्ध को तैयार करने में डा० कृष्णकुमार दीक्षित ने अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए हैं । इसके लिए मैं उनकी अत्यन्त आभारी हूँ ।
१. शब्दों एवं सूत्रों का क्रम
१. १ : २२, २ : ३५नारक- देवानाम् नारक- देवानाम् (३४) देव-नारकाणाम् देव-नारकाणाम्
(२१),
आगम में चार गतियों का वर्णन नियमानुसार निम्न से उच्च की ओर किया गया है, क्योंकि तीन लोकों का वर्णन इसी क्रम से है । श्वेताम्बर पाठ आगम से साम्य रखता है, जब कि दिगम्बर पाठ व्याकरणानुसार है ।
०, ( ० ), [२]
२.
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६ : ६
(५)
६:७
(६)
१. भाषागत परिवर्तन
अव्रत - कषायेन्द्रिय-क्रिया"
इन्द्रिय- कषायाव्रत- क्रियाः
भाव वीर्याधिकरण.... भावाधिकरण- वीर्य ...
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