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- ११८ - द्विर्धातकीखण्डे ॥१२॥ पुष्करार्धे च ॥ १३ ॥ प्राङ्मानुषोत्तरान् मनुष्याः ॥१४॥ आर्या म्लेच्छाश्च ॥१५॥ भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः ॥ १६ ॥ नृस्थिती परापरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहूर्ते ॥ १७ ॥ तिर्यग्योनीनां च ॥ १८ ॥
को कोई सत्र समझते है। स० मे इस आशय का सूत्र २४वा है । हरिभद्र और सिद्धसेन कहते है कि यहाँ कोई विद्वान् बहुत से नये सूत्र अपने आप बनाकर विस्तार के लिए रखते है। उनका यह कथन संभवत. सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्रपाठ को लक्ष्य मे रखकर है, क्योकि उसमे इस सूत्र के बाद १२ सूत्र ऐसे है जो श्वे० सत्रपाठ में नही है । उसके बाद के सूत्र २४ और २५ भी भाष्यमान्य ११वें सूत्र के भाष्य-अंश ही है। स० रा० के सूत्र २६ से ३२ भी अधिक ही है । स० के १३वे सूत्र को तोड कर श्लो० में दो सूत्र बना दिए गए है ।
अधिक सूत्रों के पाठ के लिए स० रा० श्लो० द्रष्टव्य है । १ प्रार्या मिलशाच-भा० हा० । २. परावरे-रा० श्लो० । ३. तिर्यग्योनिजानां च-स० रा० श्लो० ।
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