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पञ्चमोऽध्यायः
अजोवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥१॥ द्रव्याणि जीवाश्च ॥२॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥३॥ रूपिणः पुद्गलाः॥४॥ आऽऽकाशादेकद्रव्याणि ॥५॥ निष्क्रियाणि च ॥६॥ असङ्ख्येयाः प्रदेशा धर्माधर्मयोः ॥७॥ जीवस्य ॥८॥ आकाशस्यानन्ताः ॥९॥ सङ्ख्येयाऽसङ्ख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १०॥
१ स० रा० श्लो० मे इस एक सूत्र के स्थान पर द्रव्याणि व जीवाश्च ये
दो सूत्र है। सिद्धसेन कहते है-'कोई इस सूत्र को उपयुक्त प्रकार से दो सत्र बनाकर पढते है जो ठीक नही है।' अकलङ्क के सामने भी किसी ने शङ्का उठाई है-द्रव्याणि जीदाः ऐसा 'च' रहित एक सूत्र ही क्यो नही रखते ?' विद्यानन्द का कहना
है कि स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए ही दो सूत्र बनाए गए है। २. सिद्धसेन कहते है-'कोई इस सूत्र को तोड़कर नित्यावस्थितानि
एवं प्ररूपाणि ये दो सूत्र बनाते है।' नित्यावस्थितान्यरूपाणि पाठान्तर भी उन्होने वृत्ति मे दिया है। नित्यावस्थितान्यरूपीणि ऐसे एक और पाठ का भी उन्होने निदेश किया है । 'कोई नित्यपद को अवस्थित का विशेषण समझते है' ऐसा भी वे कहते है। इस सूत्र की व्याख्या के मतान्तरों के लिए मिद्धसेनीय वृत्ति द्रष्टव्य है । ३ देखे--विवेचन, पृ० ११५, टि० १ । ४. -धर्माधर्मकजीनाम्-स० रा० श्लो० । ५. स० रा० श्लो० में यह पृथक सूत्र नहीं है। सिद्धसेन ने पृथक् सत्र
रखने के कारण का स्पष्टीकरण किया है ।
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