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अर्पितार्नापितसिद्धेः ॥ ३१ ॥ स्निग्धरूक्षत्वाद्बन्धः ॥ ३२ ॥ न जघन्यगुणानाम् ॥ ३३ ॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ३४ ॥ द्वयधिकादिगुणानां तु ॥
३५ ॥ बन्धे समाधिकौ पारिणामिकौ ॥ ३६ ॥
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गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ॥ ३७ ॥ कालश्चेत्येके ॥ ३८ ॥ सोऽनन्तसमयः ॥ ३९ ॥ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥ ४० ॥ तद्भावः परिणामः ॥ ४१ ॥ अनादिरादिमां ॥ ४२ ॥ रूपिष्वादिमान् ॥ ४३ ॥ योगोपयोगी जीवेषु ॥ ४४ ॥
१. इस सूत्र की व्याख्या में
मतभेद है । हरिभद्र सबसे निराला ही अर्थ करते हैं । हरिभद्र की व्याख्या का सिद्धसेन ने मतान्तररूप में निर्देश किया है ।
२. बन्ध की प्रक्रिया मे श्वे० दि० मतभेद के लिए देखें - विवेचन, पृ०
१३९ ।
३. बन्धेधिक पारिणामिकौ - स० श्लो० । रा० मे सूत्र के अन्त मे 'च' हैं । अकलंक ने समाधिको पद का खण्डन किया है ।
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४. देखें – विवेचन, पृ० १४४, टि० १ । कालश्च - स० २१० श्लो० ।
५.
मे
ये अन्तिम तीनों सूत्र स० रा० श्लो० भाष्य के मत का खण्डन किया है । पृ० १४६-१४७ । टि० में इसके पहले
नही है । राजवार्तिककार ने विस्तार के लिए देखें - विवेचन, स द्विविध. सूत्र है ।
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