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षष्ठोऽध्यायः कायवाङमनःकर्म योगः ॥१॥ स आस्रवः ॥२॥ शुभः पुण्यस्य ॥३॥ अशुभः पापस्य ॥४॥ सकषायाकषाययोः साम्परायिकर्यापथयोः ॥५॥ अवतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसङ्ख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥६॥ तीवमन्दज्ञाताज्ञातभाववीर्याऽधिकरणविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥७॥ अधिकरणं जीवाजोवाः ॥ ८॥ आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैत्रिस्त्रि - स्त्रिश्चतुश्चैकशः ॥९॥ निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥१०॥ तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः॥११॥ दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वद्यस्य ॥१२॥ भूतव्रत्यनुकम्पा दानं सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वद्यस्य ॥१३॥
१ देखें-विवेचन, पृ० १४१, टि० १ । २. यह सूत्ररूप मे हाल में नहीं है। लेकिन शेष पापम् सूत्र है। सि० मे
अशुभ. पापस्य सूत्ररूप मे छपा है, लेकिन टीका से मालूम होता है कि
यह भाष्प-अश है। ३. इन्द्रिय कमायावतक्रिया:-हा० सि० टि०; स० रा० श्लो० । भाष्यमान्य
पाठ मे अवत हो पहले है । सूत्र की टीका करते समय सिद्धसेन के सामने इन्द्रिय पाठ प्रथम है । किन्तु सूत्र के भाष्य में अव्रत पाठ प्रथम है । सिद्धसेन को जब सूत्र और भाष्य की यह असंगति ज्ञात हुई तो
उन्होने इसे दूर करने की कोशिश भी की। ४. -भावाधिकरणवीर्यविशे-स० रा० श्लो० । ५. भूतवत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः-स० रा० श्लो० ।
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