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- ११६ - वैक्रियमौपपातिकम् ॥४७॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४८॥ शुभं विशुद्धमव्याधाति चाहारकं चतुर्दशपूर्वधरस्यैव ॥ ४९ ॥ नारकसम्मूछिनो नपुंसकानि ॥ ५० ॥ न देवाः ॥५१॥ औपपातिकैचरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५२॥
१. प्रौपपादिकं वैक्रियिकम्-स० रा० श्लो० । २. इसके बाद स० रा० श्लो० मे तैजसमपि सूत्र है । भा० मे तैजसमपि
सूत्र के रूप में नही है। हा० मे शुभम् .. इत्यादि सूत्र के बाद यह सूत्ररूप में है। सि० मे यह सूत्र क० ख० प्रति का पाठान्तर है। टि० मे यह स्वतंत्र सूत्र है, किन्तु अगले सूत्र के बाद है। उसका यहाँ
होना टिप्पणकार ने अनुचित माना है । ३. चतुर्दशपूर्वधर एव-सि० । प्रमत्तसंयतस्यैव-स० रा० श्लो० । सिद्धसेन
का कहना है कि कोई अकृत्स्नश्रुतद्धिमतः विशेषण और जोडते है । ४. इसके बाद स० रा० श्लो० मे शेषास्त्रिवेदाः सूत्र है। श्वेताम्बर । पाठ मे यह सूत्र नहीं है, क्यांकि इस अर्थ का भाष्यवाक्य है । ५. औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसं-स० रा० श्लो० । ६. चरमदेहोत्तमदेहपु-स-पा०, रा-पा० । सिद्धसेन का कहना है कि
इस सूत्र मे सूत्रकार ने 'उत्तमपुरुष' पद का ग्रहण नही किया है-ऐसा कोई मानते है । पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द 'चरम' को 'उत्तम' का विशेषण समझते है।
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