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द्विविधानि ॥ १६ ॥ निर्वृत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् ॥ १७ ॥ लब्ध्युपयोगी भावेन्द्रियम् ॥ १८ ॥ उपयोग: स्पर्शादिषु ॥ १९ ॥ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राणि ॥ २० ॥ स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तेषामर्थाः ॥ २१ ॥ श्रुतमनिन्द्रियस्य ॥ २२ ॥ वाय्वन्तानामेकम् ॥ २३ ॥
कृमिपिपीलिकाभ्रमर मनुष्यादीनामेकैक वृद्धानि ॥ २४ ॥
संज्ञिनः समनस्काः ।। २५ ।। विग्रहगतौ कर्मयोगः ॥ २६ ॥ अनुश्रेणि गतिः ॥ २७ ॥ अविग्रहा जीवस्य ॥ २८ ॥
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विग्रहवती च संसारिणः प्राक् चतुर्भ्यः ॥ २९ ॥ एकसमयोऽविग्रहः ॥ ३० ॥ एकं द्वौ वाऽनाहारकः ॥ ३१ ॥ सम्मूर्छन गर्भोपपाती जन्म ॥ ३२ ॥
१. स० रा० श्लो० मे नही है । सिद्धसेन • कहते है - 'कोई इसको सूत्र नहीं मानते और वहते हैं कि भाष्यवाक्य को ही सूत्र बना दिया गया है ।'
— पृ० १६९। २. तदर्था - स०रा० श्लो० । 'तदर्थाः ' ऐसा समस्तपद ठीक नही, इस शंका का निराकरण अकलंक और विद्यानन्द ने दूसरी ओर श्वे० टीकाकारो ने इसका स्पष्टीकरण किया है कि असमस्त पद क्यो रखा गया है ।
किया है ।
३. वनस्पत्यन्तानामेकम् - स० रा० श्लो० ।
४. सिद्धसेन कहते है कि कोई सूत्र मे 'मनुष्य' पद को अनार्ष समझते है । ५. सिद्धसेन कहते है कि कोई इसके बाद प्रतीन्द्रिया. केवलिन. सूत्र रखते है ।
६. एकसमयाऽविग्रहा - स० रा० श्लो० ।
७. द्वौ त्रीन्वा - स० रा० श्लो० । सूत्रगत 'वा' शब्द से कोई 'तीन' का भी संग्रह करते थे, ऐसा हरिभद्र और सिद्धसेन का कहना है ।
८. पाताज्जन्म स० ।– पादा जन्म रा० श्लो० ।
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