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सत्र ( ३६ ) के इन नियमों द्वारा सूत्र (३५) के कथन का खण्डन होता है। सूत्र ( ३५ ) सर्वथा महत्त्वहीन एवं अनावश्यक है । पूज्यपाद ने दिगम्बर परम्परानुसार पौद्गलिक बन्ध के नियमों को स्पष्ट करने के लिए षट्खण्डागम ५. ६. ३६ से निम्न पद्य उद्धृत किया है :
गिद्धस्स णि ण दुराधिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराधिएण । णिद्धस्स लुक्खेण हवदि बंधो जहण्ण वज्जे विसमे समे वा ॥ इस पद्य में निम्न बातें समाविष्ट हैं : १. दो गुणांश अधिक वालों का बन्ध 5(अ) सदृश परमाणुओं में होता है:
(ब) असदृश परमाणुओं में २. इस नियम में जघन्य गुणांशवालों 5( अ ) सदृश परमाणुओं में
का समावेश नहीं होता है : (ब) असदृश परमाणुओं में इन नियमों का, जिनमें दिगम्बर परम्परा मान्य उपर्युक्त पौद्गलिक बन्ध के स्वरूप को भलीभाँति स्पष्ट किया गया है, सूत्र (३४) और (३६) के साथ तालमेल है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सूत्र (३५) अनावश्यक है। चूंकि दिगम्बर दृष्टि से पौद्गलिक बन्ध के लिए सूत्र ५ : ( ३५ ) में प्रयुक्त गुण-साम्ये शब्द महत्त्वहीन है अतः सम शब्द को सूत्र ५ : ३६ से निकाल देना पड़ता है जिससे सूत्र (३७) के पाठ में थोड़ो-सी भिन्नता आ जाती है। इसी प्रकार सूत्र ५ : (३५) के सदृशानाम् शब्द का इन नियमों से कोई तालमेल नही है। इसीलिए सर्वार्थसिद्धि में इस शब्द की व्याख्या इतनी उलझनपूर्ण है।
सत्र ५ : ( ३५ ) का स्वरूप त्रुटिपूर्ण होने से दिगम्बर सिद्धान्तानुसार पौद्गलिक बन्ध के स्वरूप का स्पष्टीकरण करने के बजाय भ्रान्ति उत्पन्न करता है जिससे यह प्रमाणित होता है कि सर्वार्थसिद्धि के ये सूत्र मौलिक नही है। सूत्र ( ३५ ) बिना किसी विशेष विचार के अन्य सत्रों के साथ अपना लिया गया मालूम होता है। इसीलिए यधिकादि शब्द का अर्थ 'द्वयधिकता' किया गया प्रतीत होता है जो कि अप्रचलित और असंगत है। जहाँ 'द्वयधिक' शब्द किसी भ्रम को प्रश्रय देनेवाला नहीं है वहाँ उसे षट्खंडागम के अनुकूल बना दिया गया है।
२. परीषह
९ : ११ (११) एकादश जिने
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