________________
१०५
सैद्धान्तिक भिन्नता होने के कारण ही इस सूत्र के अर्थ में मतभेद है । यह भिन्नता केवली में कक्लाहार मानने और न मानने के कारण है । दिगम्बर मतानुसार यह सूत्र ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया जा सकता । वस्तुतः इस सूत्र में 'न' शब्द का अध्याहार करके उसका अर्थ करना चाहिए, जैसा कि सर्वार्थसिद्धि में किया गया है अथवा — एकादश जिने 'न सन्ति' इति वाक्यशेषः कल्पनीयः, सोपस्कारत्वात् सूत्राणाम् ।
तब इस संदर्भ में 'उपचार' की सार्थकता कैसे समझी जाए ? पूज्यपाद के कथनानुसार जिन के परीषद् परीषह नही होते क्योंकि उनमें वेदनारूप परीषह का अभाव होता है । मोहनीय कर्म की अनुपस्थिति में भाववेदनीय कर्म ( असाता - वेदना ) का उदय नही होता । उनमे द्रव्यवेदनीय कर्म की सत्ता होने से उन्हें परीषह कहा जाता है । उदाहरणार्थं सूक्ष्म- क्रिया और समुच्छिन्न-क्रिया ध्यान नही है क्योकि चिन्तानिरोधरूप ध्यान का लक्षण उन पर लागू नही होता, किन्तु 'उपचार' से इन्हें ध्यान कहा जाता है क्योकि इनसे कर्म निर्हरणरूप फल प्राप्त होता है । सूक्ष्म- क्रिया और समुच्छिन्न-क्रिया शुक्ल ध्यान के अंतिम दो भेद हैं जो दोनों परंपराओं में मान्य है । अतः यदि इन्हे ध्यान के रूप में माना जाए तो इसी तर्क के आधार पर दिगम्बर मतानुसार परीषहों की स्थिति माननी ही पड़ेगी, जैसा कि पूज्यपाद ने लिखा है ।
यह मान्यता कि 'शुक्लध्यान के अंतिम दो भेदों को इस आधार पर ध्यान की संज्ञा दी गई है कि इनसे कर्मो का क्षय होता है' सर्वथा सदेहपूर्ण है, क्योंकि जैन ध्यान के अंतर्गत आर्त और रौद्र ध्यानों का भी समावेश है जिनसे अशुभ कर्मो का आस्रव होता है । अतएव 'उपचार' की उक्ति के लिए यहाँ कोई अवकास नही है । संभवतः मोक्ष से संबंधित होने के कारण सूक्ष्म क्रिया और समुच्छन्न- - क्रिया को ध्यान मान लिया गया है, क्योंकि अधिकांश धार्मिक सप्रदायों में ध्यान अथवा समाधि के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मानी गई है । यथार्थतः सूक्ष्म - क्रिया केवल सूक्ष्म काय-योगपूर्वक होने से सयोग केवली के और तीनों प्रकार के योग से रहित होने से अयोग- केवली के ध्यानरूप नही होती । जो हो, उपचार की बात असिद्ध हो जाने से सूक्ष्म क्रिया और समुच्छिन्नक्रिया का उदाहरण प्रस्तुत करने का टीकाकार का प्रयोजन सार्थक सिद्ध नहीं होता । अतएव दिगम्बर टीकाकारो की परीषह-सम्बन्धी यह मान्यता युक्तिसंगत नही है ।
Jain Education International
For Private
Personal Use Only
www.jainelibrary.org