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सत्र ९ : ११ (११) इस प्रकार है-एकादश जिने अर्थात् जिन के ग्यारह परीषह होते है जो वेदनीय कर्म के कारण उत्पन्न होते हैं। वे ये हैं : क्षुत्, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, चर्या शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल । सप्तमी के एकवचन में प्रयुक्त जिने शब्द से यह अभिव्यक्त नही होता कि वह केवल सयोग-केवली के लिए प्रयुक्न हुआ है अथवा सयोग-केवली एवं अयोग-केवली दोनों के लिए। इस सत्र की टीकाएँ अर्थात् भाष्य और सर्वार्थसिद्धि से लेकर श्रतसागर को वत्ति तक सभी इस विषय में मौन है। भगवतीसूत्र ८. ८. ३४२ में यह स्पष्ट उल्लेख है कि ये ग्यारह परीषह केवलित्व की दोनो अवस्थाओ में होते हैं । अयोग-केवली, जिसका काल अंतर्मुहूर्त मात्र होता है, योग से सर्वथा मुक्त होता है, अतः उसके परीषह होने की कोई सम्भावना ही नहीं। इसलिए 'जिन' शब्द केवल सयोग-केवली के लिए ही प्रयुक्त हुआ समझना चाहिए।
सूत्र ९ : ११ (११) दोनों परम्पराओं में समान रूप से प्रयुक्त हुआ है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार सयोग-केवली का वेदनीय कर्म उतना ही प्रभावकारी होता है जितने कि शेष तीन प्रकार के अघातिक कर्म, अतः इस सूत्र का श्वेताम्बार मान्यता से सर्वथा मेल है। दिगम्बर परम्परा में इस सूत्र का वही अर्थ नहीं हैं अपितु विपरीत अर्थ है अथवा तर्क के आधार पर सिद्धान्तरूप में यदि यह अर्थ मान लिया जाए तब भों उसमें 'उपचार' के रूप में ही यह स्वीकार किया गया है। दिगम्बर टीकाकार यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि जिनों के क्षुधा आदि परीषह नहीं होते क्योंकि उनके मोहनीय कर्म नहीं होता जो कि असातावेदना का सहायक कारण है, यद्यपि द्रव्यरूप में वेदनीय कर्म उनमे विद्यमान रहता है। दूसरे शब्दों में, उनमें वेदनीय कर्म द्रव्यरूप मे रहता है किन्तु भावरूप में नहीं रहता, इसलिए उनके असाता-वेदना नहीं होसी । सर्वार्थसिद्धि में इसके लिए 'उपचार' का सहारा लिया गया है
और इसी आधार पर सूत्र का तर्कसंगत अर्थ भी स्वीकार किया गया हैननु च मोहनीयोदय-सहायाभावात् क्षुदादि-वेदनाभावे परीषह-व्यपदे
शो न युक्तः ? सत्यमेवमेतत्-वेदनाभावेऽपि द्रव्य-कर्म-सद्-भावापेक्षया परीषहोपचार क्रियते, निरवशेषनिरस्त ....." ज्ञानातिशये चिन्ता-निरोधाभावेऽपि तत् फल-कर्म-निर्हरण-फलापेक्षया ध्यानोपचारवत् । अन्य दिगम्बर टीकाकारों ने पूज्यपाद का ही अनुसरण किया है। दोनों परंपराओं में
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