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- १०२ - यह प्रश्न उठता है—यद्येवं सदृश-ग्रहणं किमर्थम् ? जिसका यह उत्तर दिया गया है--गुण-वैषम्ये सदशानामपि बन्ध-प्रतिपत्त्यर्थं सदश-ग्रहणं क्रियते। यह उत्तर निःसंदेह सूत्र ५ : ३४ के भाष्य से लिया गया है। सदशानाम् शब्द की अस्पष्ट स्थिति को आगे छानबीन नहीं की गई है। पौदगलिक बन्ध के होने या न होने की बात सर्वार्थसिद्धि में संक्षेप में इस प्रकार है : १ सम गुणांश
S (अ ) सदृश परमाणुओं में (नहीं)
(ब ) असदृश परमाणुओं में ( नहीं) २. विषम गुणांश
S ( अ ) सदृश परमाणुओं में ( है )
। (ब ) असदृश परमाणुओं में ( है ) अंतिम अवस्था अर्थात् २ ( ब ) का इसमें प्रतिपादन नहीं किया गया है, किन्तु अगले सत्र से इस प्रकार के बन्ध की सम्भावना का बोध अवश्य हो जाता है । टीकाकार स्वयं यह स्वीकार करता है कि सदृशानाम शब्द का इस संदर्भ में कोई अर्थ नही है । वास्तव में यह अनावश्यक है क्योंकि इससे दिगम्बर सिद्धान्त के अनुसार होनेवाले पौद्गलिक बन्ध के स्वरूप के विषय में भ्रम पैदा होता है।
सत्र ( ३६ ) में दो गणांश अधिक वाले परमाणुओं का बन्ध माना गया है। यहाँ द्वयधिकादि शब्द का अर्थ 'द्वयधिकता' किया गया है । इस सूत्र में अभिप्रेत बन्ध का स्वरूप पूज्यपाद की दृष्टि में इस प्रकार है :
( दो स्निग्ध --चार स्निग्ध; तीन स्निग्ध + पाँच स्निग्य; १. असदृश २ चार स्निग्ध+छ: स्निग्ध....."
दो रूक्ष-+-चार रूक्ष आदि २. असदृश दो स्निग्ध + चार रूक्ष आदि
इस प्रकार सूत्र ( ३६ ) को टोकानुमार पौद्गलिक बन्ध के होने या न होने को स्थिति इस प्रकार है :
। अ) सदृश परमाणुओं में । १ दो गुणांश अधिक
( ब ) असदृश परमाणुओं में
(अ) सदृश परमाणुओं में २. अन्य गुणांश
( नहीं) (ब) असदृश परमाणुओं में (नहीं)
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