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(२५) इनका पुण्य कर्मो में असमावेश |
सिद्धसेनगणि ने इन चार कर्मो को पुण्य के अन्तर्गत रखना उचित नही माना है, किन्तु उन्होंने ऐसी कारिकाएँ उद्धृत की हैं जिनसे दोनों तो का समर्थन होता है ।
अर्थात् दूसरे, तीसरे और आठवें द्वारा होती है; तोन में अर्थात् मतभेद नहीं है; शेष दो अर्थात्
उपर्युक्त आठ विषयों में से तीन में में दोनों मतों की पुष्टि आगमिक परंपरा पहले, चौथे और सातवे मे वास्तव में पाँचवीं और छठा विशेष महत्त्व के नहीं है । दोनों परंपराओं के ग्रंथों में उपलब्ध इन विभिन्न मतो से यह निर्णय नही हो सकता कि कौन-सा पाठ मूल है । यहाँ भी हमें निशा ही होती है ।
अब हम मतभेद के दो प्रकरणों की छानबीन करेगे । ये इस प्रकार हैं - १. पौद्गलिक बन्ध के नियम और २. परीषह । द्वितीय प्रकरण में दोनों आवृत्तियों का सूत्र अभिन्न है, जब कि प्रथम प्रकरण में सूत्रों में थोड़ी भिन्नता है |
१. पोद्गलिक बन्ध के नियम
सूत्र ५ : ३२-३६ (३३ - ३७) मे पौद्गलिक बन्ध का निरूपण इस प्रकार किया गया है :
५ : ३२ (३३) स्निग्ध- रूक्षत्वाद्-बन्धः
३३ (३४) न जघन्य - गुणानाम् ३४ (३५) गुण साम्ये सदृशानाम् ३५ (३६) द्वयधिकादि-गुणानां तु ३६
बन्धे समाधिक पारिणामिकौ ( ३७ ) बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ च
दोनो पाठों में उपर्युक्त सूत्र अभिन्न रूप में हैं, केवल सूत्र ३६ ( ३७ ) में थोड़ी भिन्नता है। सूत्र ५ : ३३-३५ ( ३४-३६), जिनमें बन्ध के नियमों का पुद्गल के सदृश और विसदृश दोनों प्रकार के गुणांशों की दृष्टि से निरूपण किया गया है, दोनों परंपराओ में बिना किसी पाठ-भेद के उपलब्ध हैं, किन्तु अर्थ की दृष्टि से उनकी टीकाओं में अन्तर पाया जाता है । यह अन्तर निम्नलिखित तालिका से स्पष्ट है :
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