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२:४९ आहारक-शरीर चतुर्दश-पूर्वधर के होता है। (४९) यह प्रमत्त-संयत के होता है ।
-पण्णवणा २१. ५७५. यथार्थत. यह मतभेद नही है अपितु व्याख्यात्मक भिन्नता है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों के अनुसार आहारक-शरीर केवल चतुर्दशपूर्वधर के ही होता है तथा उसके प्रयोग के समय वह अनिवार्यतः प्रमत्तसयत होता है। दोनों परंपराओं के अनुसार सभी प्रमत्त-संयत आहारकशरीरवाले नहीं होते।
४ : २ ज्योतिष्को के तेजोलेश्या होती है तथा भवन
वासी एवं व्यन्तरो के चार लेश्याएँ होती हैंकृष्ण से तेजस् तक।
-ठाण १. ७२ (२) चार लेश्याएँ तीन देव-निकायों में पायी जाती
हैं-भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क। ६. ४ : ३, २० बारह कल्प।
---आगम में १२ कल्प एकमत से मान्य हैं :
पण्णवणा ५. २४३; उत्तरज्झयण ३६. २११-१२ (३. १९) सूत्र ४ : (३) में १२ कल्प माने गए हैं किन्तु
सूत्र ४ : ( १९ ) में १६ कल्प गिनाए गए है।
-तिलोयपण्णत्ति ८. ११४ में ५२ कल्पों की
गणना की गई है। ७. ५ : ३८ कोई आचार्य काल को भी द्रव्य कहते हैं।
(३९) काल भी द्रव्य है। आगमिक परंपरा में लोक का विवेचन पाँच अस्तिकायों अथवा छ: द्रव्यों के रूप में किया गया है। द्वितीय मत में काल को स्वतंत्र द्रव्य माना गया है, जैसे उत्तरज्झयण २८. ७-८ । प्रथम मत में काल को या तो पांच अस्तिकायों से बिलकुल अलग रखा गया या उसे जीव और अजीव के पर्याय के रूप में माना गया । अतएव इस विषय में कोई सैद्धान्तिक विषमता नही है ।
८:२६ सम्यक्त्व, हास्य, रति और पुरुषवेद का पुण्य
कर्मों में समावेश।
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