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लब्धिः। ६ । अद्रव्यवत्त्वात् परमाणवनुपलब्धिः १७ । संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोग-विभागौ परत्वापरत्वे कर्म च रूपि-द्रव्य-समवायात् चाक्षुषानि । १२ । अरूपिष्वचाक्षुषत्वात् । १३ ।-परमाणु की सत्ता का अनुमान उसके कार्य से होता है, क्योंकि परमाणु नित्य और अचाक्षुष है। जो महत् है वह चाक्षुष होता है क्योंकि उसमें अनेक द्रव्य हैं और वह रूपी है । रूपी द्रव्य के साथ संख्या आदि विविध गुणों का जो समवाय सम्बन्ध है उसो के कारण पदार्थ दृष्टिगोचर होते हैं। जो सत् और कारणरहित है उसे नित्य कहा गया है । अतः यहाँ सत्-नित्य, अणु-स्कन्ध और चाक्षुष-अचाक्षुष की समस्या उठाई गई है और वस्तुतः परमाणुमहत् के इसी सन्दर्भ में सत्सामान्य का विषय लिया गया है। दूसरे शब्दों में, सूत्र ५ : २९-३१ में सत्-नित्य सम्बन्धी जो व्याख्या है वह अणु-स्कन्ध के उत्पाद और चाक्षुषत्व को लेकर है अर्थात् पुद्गल के हो सन्दर्भ में है, न कि द्रव्य के सम्बन्ध से सत् के स्वरूप के विषय में । यदि इस प्रकार के सत् का स्वरूप सूत्रकार को अभीष्ट होता तो द्रव्य के विषय में भी यही प्रश्न उठाया जाता, जैसा कि पंचास्तिकाय में है, किन्तु यहाँ वैसा अभीष्ट नहीं था। इसलिए सद् द्रव्य लक्षणम् सूत्र प्रस्तुत संदर्भ में उपयुक्त प्रतीत नहीं होता और बाद में जोड़ा गया मालूम होता है । इससे यह सिद्ध होता है कि सूत्र ५ : (२९) तत्त्वार्थसूत्र का मूल पाठ नहीं है।
जहाँ तक दोनों आवत्तियों में सत्रों के विलोपन का प्रश्न है जिनका कि ऊपर चार वर्गों में विचार किया गया है, दिगम्बर पाठ श्वेताम्बर पाठ से अधिक संशोधित प्रतीत होता है । यह संशोधन प्रथम वर्ग के सूत्र ५ : ४२-४४ के त्रुटिपूर्ण परिणाम-स्वरूप को हटाकर, द्वितीय वर्ग के सूत्र में भाष्य ७ : ३ की महत्त्वपूर्ण भावनाओं की वृद्धि करके और तृतीय एवं चतुर्थ वर्ग के सूत्र ३ : ( १२-३२) एवं ५ : ( २९ ) की पूर्ति करके किया गया है जो निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण है। पश्चिमी भारत की परम्परा की हस्तलिखित प्रतियों में भी द्वितीय वर्ग के दिगम्बर सूत्र ८ : ( २६ ) एवं १० : (७-८) का प्रायः सम्मिश्रण है। यों किसी भी पाठ की मौलिकता-अमौलिकता को सिद्ध करने का निश्चित आधार केवल चतुर्थ वर्ग का सूत्र ५ : ( २९ ) ही है किंतु गौण प्रमाण के रूप में सूत्रकार की शैली भी है जो द्वितीय वर्ग के सत्र ७ : ३ (३) और ७ : (४-८) के संबंध से ज्ञात होती है।
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