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- ९६ - पर आधृत है। अब तक का हमारा प्रयत्न अपने लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहा है।
अब चतुर्थ वर्ग के सूत्रों की छानबीन करें। श्वेताम्बर आवृत्ति में सद-द्रव्य-लक्षणम् ५ : (२९) सूत्र नहीं है, जब कि दिगम्बर आवृत्ति में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत् [२९ (३०)] के ठीक पहले यह सूत्र आया है। यहाँ प्रश्न यह है कि सत् का यह कथन किस संदर्भ में है ? इसका पुद्गल के अन्तर्गत अर्थात् सूत्र ५ : २३-३६ के सन्दर्भ में निरूपण किया गया है जिनमे से सूत्र २५-२८ और ३२-३६ में अणु-स्कंधों का इस प्रकार वर्णन है :
अणु-स्कन्ध (२५-२८ (२५ अणु-स्कन्ध पुद्गल के भेदों के रूप में अणु-स्कन्ध (२५-२८७ अण-स्कन्ध की उत्पत्ति
।२८ स्कन्ध के चाक्षुष होने का हेतु (३२-३६ पौद्गलिक बन्ध की प्रक्रिया सत्-नित्यत्व (२९ सत् की त्रिरूपात्मक व्याख्या
२३० नित्यत्व की व्याख्या
(३१ सूत्र २९-३० की युक्तियुक्तता (द्रव्य ३७-४४ गुण-पर्याय-परिणाम, काल)
इन सूत्रों की समायोजना से आश्चर्य होता है कि सूत्र ५ : २९-३१ अणु-स्कन्ध के साथ क्यों रखे गए हैं जब कि द्रव्य के साथ उनका निरूपण करना उचित था । इस समस्या के हल के लिए इसका स्पष्टीकरण आवश्यक है कि सूत्र ५ : (२९) बाद मे जोड़ा गया या नहीं।
सूत्र ५ : २८ के भाष्य में लिखा है-धर्मादीनि सन्तीति कथं गात इति/अत्रोच्यते लक्षणतः। इसमें स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि द्रव्य सत्लक्षणयुक्त है, जैसा कि सूत्र ५ : ( २९ ) की सर्वार्थसिद्धि मे यत् सत् तद् द्रव्यमित्यर्थः के रूप में है। भाष्य मे यह फलितार्थ है। भाष्य यह प्रतिपादित करता है कि सत् के स्वरूप के आधार पर ही इन द्रव्यों का अस्तित्व सिद्ध किया जा सकता है । इससे अगले सूत्र की भूमिका बनती है। पदार्थों की सत्ता सिद्ध करने की यह आनुमानिक पद्धति जैन आगम की नहीं है। इसका स्रोत उमास्वाति के समय विद्यमान जैनेतर साहित्य में ढूँढ़ना चाहिए । चन्द्रानन्दकृत वैशेषिकसूत्र के चतुर्थ अध्याय के प्रथम आह्निक में लिखा है-सदकारणवत् तन्नित्यम् । १ । तस्य कार्य लिङ्गम् । २। कारणाभावाद्धि कार्याभावः।३। अनित्यम्--- इति च विशेष-प्रतिषेध-भावः । ४। महत्यनेकद्रव्यत्वात् रूपाच्चोप
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