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उपर्युक्त कथन से यह ज्ञात होता है कि मोहनीय कर्म के अभाव से जिन के भाव-वेदनीय कर्म नहीं होता। मोहनीय कर्म और वेदनीय कर्म दो अलग-अलग कर्म है। उनकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। उनकी प्रकृति एवं कार्य को मिश्रित नहीं किया जा सकता, अन्यथा कार्मिक भेदों में विशृंखलता उत्पन्न हो जाएगी। यदि उपर्युक्त कथन को स्वीकार किया जाए तो वही तर्क अन्य अघातिक कर्मों के विषय में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। उदाहरणार्थ 'जिन के भाव-गोत्र कर्म नहीं होता, क्योंकि उसमें तदनुरूप मोहनीय कर्म का अभाव होता है।' टीकाकार यह भी कहते हैं कि जिन के भाव-वेदनीय कर्म नहीं होता किन्तु द्रव्यवेदनीय कर्म होता है । यह कथन तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता, क्योंकि एक ही कर्म का द्रव्य और भाव इन दो दृष्टिकोणों से विचार किया गया है, अतएव जहाँ एक है वहाँ दूसरा भी होता ही है। अन्यथा यह तर्क अन्य अघातिक कर्मों के विषय में भी उसी प्रकार प्रयुक्त होना चाहिए। उदाहरणार्थ 'जिन के द्रव्य-औदारिक-शरीर-नामकर्म है किन्तु तत्सम्बद्ध भाव-कर्म नहीं होता।' ये सब तर्क निश्चित रूप से असगत प्रतीत होते है; कारण, किसी परम्परा का कोई रूढ़ विश्वास प्रायः सैद्धान्तिक निष्कर्ष के साथ नही चलता, क्योंकि वह धार्मिक भावनाओं में उलझ जाता है। दिगम्बर परम्परा में भी यह रूढ़ विश्वास ज्यों का त्यों रह गया। यह परम्परा इस तथ्य को स्वीकार न कर सकी कि जिन के भाववेदनीय कर्म होता है, परन्तु यह इनकार भी न कर सकी कि उसके द्रव्य-वेदनीय कर्म होता है। इसीलिए दिगम्बर आचार्यो ने सूत्र ९ : ११ (११) को बिना किसी प्रकार के परिवर्तन के स्वीकार कर लिया, परन्तु अपने रूढ़िगत विश्वास के अनुसार टोकाओं में अर्थ-संबंधी संशोधन कर डाला। उन्होंने यह संशोधन 'उपचार' की पद्धति से किया ताकि इस सूत्र का मूल अर्थ बिलकुल बिगड़ न जाए । इसमें वे असफल रहे । इससे यह निश्चित रूप से प्रमाणित हो जाता है कि सूत्र ९ : ११ (११) मूलरूप में दिगम्बर परम्परा का नहीं था।
ये दो प्रकरण, जिनमें दोनों परंपराओं के सैद्धान्तिक मतभेद का समावेश है, विचाराधीन मूल पाठ की यथार्थता की सिद्धि के लिए महत्त्वपूर्ण हैं । केवल इन्हीं सूत्रों की छानबीन से इस समस्या को हल करना असम्भव है। टीकाओ में इसके हल की कुंजी छिपी हुई है, अतः उन्हें सुस्पष्ट करना अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार के और भी
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